Tuesday, February 28, 2012

बौध्द भिक्षु

        बौध्द भिक्षु चीवर धारण करते हैं. भगवे रंग के तीन कपड़ों के सेट को  चीवर कहा जाता है. इस सेट में एक पहनने का कपड़ा जिसे अंतर वासक कहा जाता है।  दूसरा ओढने का कपड़ा जिसे उत्तरा संग और तीसरा संगाठी अर्थात छाती के चारो ओर लपेटने का कपड़ा होता है।  उत्तरा संग को दुपट्टे की तरह ओढ़ा जाता है। .

 एक बौध्द भिक्षु के पास चीवर के आलावा भिक्षा-पात्र, अंगोछा,करधनी और उस्तरा होता है. हर पन्द्रहवें दिन भिक्षु एक दूसरे का मुंडन करते हैं. भिक्षु स्वयं उपार्जन करते हैं। उनकी आजीविका भिक्षा है। एक भिक्षु से अपेक्षा की जाती है कि वह विनय (भिक्षु आचरण के नियम ) का कठोरता से पालन करें। आम जनता में भिक्षु , धार्मिक संस्कार सम्पन्न करते/कराते हैं। धर्मानुसार आचरण के लिए वे प्रेरणा-स्रोत होते हैं।

 मगर, देखा जाता है कि इसके उलट, भिक्षु धन का संग्रह करते हैं। उनका घर-बार होता है।  बीबी और बच्चें होते हैं। वे वैवाहिक जीवन का आनंद उठाते हैं। वे यूवा-वस्था में प्रव्रजित हो भिक्षु नहीं बनते बल्कि , अधेड़ होने के बाद पारिवारिक जिम्मेदारियों से भागने के लिए काषाय वस्त्र धारण करते हैं। भिक्षु विनय में उल्लेखित नियमों के परिपालन में ऐसे भिक्षु बिरले ही होते हैं।

 एक भिक्षु पी एच डी थे।  मगर, वे बार बार इसका उल्लेख कर रहे थे। आप पी एच डी हैं तो इसका पता सामने वाले को आपके प्रवचन से होना चाहिए न कि आपके बताने से। बेशक, पी एच डी से व्यक्तित्व में एक ठसक आती है।  मगर ,  इस ठसक में दबाव न हो कर एक सहजता होनी चाहिए।

यह भी हो सकता है कि मैंने उस तरह के भिक्षु ही न देखे हो। जिन भिक्षुओं से मेरा मिलना हुआ वे दरअसल, टाइम पास भिक्षु हो। अगर ऐसा है तो मैं उन भिक्षुओं को पूरे आदर के साथ नमन करता हूँ, वंदन करता हूँ।
 बुद्धं नमामि।

Monday, February 27, 2012

जाति, घृणा नहीं एकता की निशानी है

  
     दलित समाज के लोग, यूँ तो बाबा साहेब के अनुयायी होने का दम्भ भरते हैं. डा. आंबेडकर के जाति-विहीन समाज को बनाने की वकालत करते हैं.किन्तु, ये ही लोग न सिर्फ जातिगत नामों को धारण करते हैं वरन,  बच्चों की शादी  भी अपने ही जाति में करना पसंद करते हैं ?
      जाति-विहीन समाज की स्थापना, नि:संदेह हमारा लक्ष्य होना चाहिए. क्योकि, जाति-विहीन समाज से ही प्रबुध्द भारत का निर्माण हो सकता है. मगर,  'दलित वायस'  के सम्पादक वी.टी. राज शेखर कुछ अलग ही विचार रखते हैं. आपके अनुसार जाति, वास्तव में वह नहीं है, जो ब्राह्मण कहता है. बल्कि, 'जाति' आपकी इथनिक आईडेनटीटी ( ethnic identity ) है . यह आईडेनटीटी बतलाती है कि आप किस इथनिक ग्रुप को बिलोंग ( Belong ) करते हैं.आप किस संस्कृति और कल्चर को बिलोंग करते हैं. आपका टोटेम क्या है.आपके वंश और कुल-देवता क्या है. आपके सामाजिक और पारिवारिक विश्वास का आधार क्या है ?
        जाति, जिस रूप में हम आप देखते हैं. यह थोपी हुई घृणा है. इस घृणा को ब्राह्मणों ने 'बाँटो और राज करो' की नीयत से उन लोगों पर थोपा जिन्होंने अन्तिम दम तक उनका विरोध किया.यह बुध्द के सामाजिक क्रांति पर ब्राह्मणों की प्रति-क्रांति है. 
      जाति, मूल रूप में वह नहीं है, जो आज दिखाई देती है.जातियों में जो उंच-नीच की घृणा दिखाई देती है, ब्राह्मणों ने बड़ी सूझ-बुझ और चालाकी से अपने विरोधियों पर थोपा. ताकि, दलित जाति की आने वाली पीढियां भी उनका विरोध करने का फिर कभी सोच न कर सके. वे हमेशा-हमेशा आपस में ही बंटे रहे. निश्चित रूप में उंच-नीच की जातिगत मानसिकता दलितों को न सिर्फ आपस में बांटती है बल्कि, उन्हें एक होने के लिए रोकती भी है.
        नि:संदेह, डा.आंबेडकर जाति, जिस घृणा के रूप में आज वह विदमान है,  को ख़त्म करने की बात करते हैं. क्योकि, सामाजिक एकीकरण में यह सबसे बड़ी बाधा है.उंच-नीच की जातीय-मानसिकता के चलते लोगों को,  दलित समाज के रूप में एक करना असम्भव है और बिना एकता के दलित समाज के राजनैतिक अधिकारों की प्राप्ति सम्भव नहीं है और यही कारण है कि बाबा साहेब डा. आंबेडकर ने बौध्द-धर्मान्तरण किया.
        निश्चित रूप में डा. आंबेडकर के बौध्द-धर्मान्तरण के पीछे दलितों की एकता ही लक्ष्य था. समाज को बांध कर रखना उनका हेतु था ? मगर, डा. आंबेडकर के अनुयायियों ने क्या उनका अनुशरण किया ? दलित समाज के महार जातियों ने बड़ी संख्या में डा. आंबेडकर का अनुशरण किया. शुरू-शुरू में दलित समाज की चमार जातियों ने भी बौध्द-धर्मान्तरण किया. मगर, बाद के आने वाले दिनों में ये सिलसिला थम गया.दलित समाज में महार और चमार जातियों की संख्या काफी है.कई राज्यों में इनकी संख्या इतनी है कि इन जातियों को साथ लिए बगैर सत्ता की कुर्सी पर पहुंचना मुश्किल है. शायद, चमार जाति के लोगों ने   सी एंड वाच ( see and watch )  की नीति अपनाई.
       कांसीराम साहब ने चमारों की इस नीति पर गौर किया. तब उन्होंने  'राजनीती सब तालों की चाबी है, के सूत्र पर चलने का निश्चय किया. बाबा साहेब डा. आंबेडकर का रास्ता उनके सामने था. मगर, लोग झिझक रहे थे.उन्होंने बड़ी सूझ-बुझ से तब, समाज को राजनैतिक रूप से जोड़ने का फैसला लिया.आज, उ.प्र. आपके सामने है. चमार जाति के लोग हाथ की मुट्ठी बंधी अँगुलियों के तरह बहनजी के साथ है.
        मान्य. कांसीराम के इस एक्सपेरिमेंट ( experiment ) का खुलासा,  दलित वायस के सम्पादक वी.टी.राज शेखर  जाति को  'कांटे से कांटा'  निकालने में उपयोग किये जाने बात काफी पहले ही कर चुके थे.  वी.टी.राज शेखर की इस थ्योरी के अनुसार, अपना वर्चस्व कायम करने के उद्देश्य से जिस तरह ब्राह्मणों ने समाज को  ऊंची-नीच की जातियों में बांटा था, ठीक उसी तरह निचली जातियों को, जो इसके परिणाम की भुक्तभोगी है, अपना हक़ और हकूक हासिल करने के लिए अब इसी  'जाति'  को एक बांडिंग( Bonding ) की तरह उपयोग में लाना चाहिए.
  

Friday, February 24, 2012

एन.जी.उके ( N.G.Uke : -- 2006)

        एन.जी. उके साहेब को मैं उनके लेख के माध्यम से जानता हूँ. बंगलौर से प्रकाशित 'दलित वायस',  बामसेफ के 'बहुजनों का बहुजन भारत' आदि पत्र-पत्रिकाओं में उनके लेख प्रकाशित होते रहते थे. सामाजिक आन्दोलन पर उनके लेख बड़े विद्वतापूर्ण और विचारोत्तेजक होते थे. उनकी विद्वता का मैं कायल था. मगर, उनसे रुबरुं होने का अवसर नहीं हुआ .जन. 2007 में मैंने किसी पत्रिका में पढ़ा, कि उनका देहांत हो गया. मैं सोचते रह  गया कि एक और 'प्रबुध्द भारत' का हीरा खो गया.
       उके साहेब का देहांत 82 वर्ष की उम्र में दिल्ली के उनके बसंत कुञ्ज निवास में 4  नव. 2006  को हुआ था. वे एक बड़े स्कालर और पके हुए अम्बेडकराईट थे.नागपुर के राय साहेब जी.टी. मेश्राम, जिनके बाबा साहेब से करीबी सम्बन्ध थे, की बेटी उके साहेब की पत्नी थी.
      उके साहेब कहते थे कि हमारे पढ़े-लिखे लोगों को उनके रूटीन लाईफ में, ईश्वर, आत्मा-परमात्मा, भाग्य-दुर्भाग्य आदि शब्दों के उपयोग से बचना चाहिए. क्योंकि, ये वाकजाल आपको उसी ब्राह्मणवादी ट्रेप में रहने की मानसिकता लगातार पैदा करते रहता है.
      बाबा साहेब के अनुयायियों के आपस में बटें होना, उके साहब ठीक नहीं मानते थे. वे देश को एक 'प्रभुध्द भारत' के रूप में देखते थे. इस तारतम्य में  बौध्द धर्म गुरु दलाई लामा से मिल कर उन्होंने अपनी  बात कही थी. उनकी सोच थी कि देश को बुध्द और बाबा साहेब आंबेडकर के विचारों के अनुरूप बनाने हेतु हमे भारत  नव-निर्माण के कार्य-क्रम करने की जरुरत है. बुध्द धर्म में ही कई विचारधाराएँ हैं. हमें अन्य बुध्दिस्ट देशो से मिलकर इस दिशा में ठोस कदम उठाना चाहिए. उके साहेब के अनुसार, समाज में व्याप्त कुरुतियाँ और अन्धविश्वास को ख़त्म कर ही आगे बढा जा सकता है. क्योंकि, ये समाज का शोषण करती है.

Dr Ambedkar signing
on witness register of N G Uke
 
   बाबा साहेब आंबेडकर से एन. जी. उके साहेब की पहली भेट नागपुर के  'डिप्रेस क्लास एसोसियशन' के क्न्फेरेंस में जुला. 1942  हुई थी. उके जी इस समय नागपुर के साईंस कालेज के इंटर में पढ़ रहे थे. तब,  इन दलित छात्र नौजवानों ने वहां  'शेड्यूल्ड कास्ट स्टूडेंट फेडरेशन' ( SCSF ) नामक एक संगठन बनाया था. उके जी इसके ज्वाईंट सेक्रेटरी थे. बाबा साहेब डा. आंबेडकरउस समय गवर्नर जनरल की  काउन्सिल में लेबर मिनिस्टर के पद पर थे.
       बाबा साहेब डा. आंबेडकर से इनकी दूसरी मुलाकात दिल्ली में उनके आवास 22 पृथ्वीराज रोड पर हुई थी.  उके जी का चयन भारत सरकार द्वारा आरक्षित वर्ग के उच्च अध्ययनरत विद्यार्थियों को विदेश में भेजे जाने के लिए हुआ था. बाबा साहेब सरकार के सिलेक्शन कमेटी में थे. परिचय के बाद जब उके जी ने बतलाया कि उनका चयन सामान्य वर्ग की सीट से भी हुआ है, तब,  बाबा साहेब बहुत खुश हुए थे. उके जी की क़ाबलियत पर बधाई देते हुए बाबा साहेब ने कहा था कि अच्छा हुआ आरक्षित वर्ग की एक सीट बच गयी. किसी दूसरे को मौका मिलेगा. लन्दन में भी उच्च शिक्षा अध्ययन के दौरान उके जी की कई बार भेट बाबा साहेब से हुई थी.
      उके जी पढाई में शुरू से ही तेज थे. वे कक्षा में हमेशा अव्वल आते थे. यद्यपि, पढाई में तेज होने के कारण सह-पाठी और ब्राह्मण टीचर उनसे ईर्ष्या करते थे.किन्तु, वे इससे हतोत्साहित नहीं हुए. पढाई में अव्वल रहने के कारण 8 वी कक्षा से ही उन्हें स्कूल से वजीफा मिलने लगा था जो उच्च विद्याध्ययन के लिए विदेश में रहने तक जारी रहा.

भगवान् कहाँ मिलता..

भगवान् कहाँ मिलता

गावं ढूंढा,  हर शहर ढूंढा
अरे गावं ढूंढा,  हर शहर ढूंढा
तेरा पता नहीं लगता
तेरा पता नहीं लगता, भगवान् कहाँ मिलता..
जंगल ढूंढा, पर्वत ढूंढा
पत्थर ढूंढा, कन्दरा ढूंढा
तो भी नहीं, दीखता. भगवान् कहाँ मिलता.
मन्दिर देखा, मस्जिद देखा.
गिरजा देखा, गुरुद्वारा देखा.
वहां भी नहीं, दीखता. भगवान् कहाँ मिलता.
काशी देखा, काबा देखा
 मथुरा देखा, मक्का देखा
यहाँ भी नहीं, दीखता. भगवान् कहाँ मिलता.

Thursday, February 23, 2012

बाबा रामदेव और सुप्रीम कोर्ट का फैसला

        विगत दिनों दिल्ली के रामलीला मैदान में बाबा रामदेव को दिल्ली पुलिस ने जिस ढंग से हेंडल किया, उस पर फैसला सुनाते हुए देश की सर्वोच्च अदालत ने कहा है कि नि;संदेह, पुलिस का रवैया अलोकतांत्रिक था. यूँ कोर्ट ने बाबा रामदेव को भी वातावरण को बिगाड़ने के लिए जिम्मेदार माना है.
        बेशक, पुलिस ने जरा ज्यादा ही सख्त रवैया अपनाया था.प्रथम दृष्टया तो ऐसा ही लगता है. पुलिस, अगर चाहती तो बाबा को इससे बेहतर ढंग से निपट सकती थी. उस सीन को जिसने भी देखा, वह यही कहेगा. किन्तु , मुझे लगता है बात इतनी भर नहीं है.लोग बाबाओं के पीछे पागलों की तरह भागते हैं.बाबाओं के आश्रमों में भेड़-बकरियों की तरह मची भगदड़ और उन में मरने वालों की संख्या इसे सिध्द करती है.
       दिल्ली के रामलीला मैदान में रामदेव बाबा ने योग शिविर के लिए अनुमति ली थी. मगर, क्या वह योग शिविर था ? आखिर, योग शिविर को,  केंद्र सरकार को धमकाने के लिए लाखों की संख्या में लोगों की भीड़ में कैसे तब्दील कर दिया गया ? बाबा रामदेव योग शिविर के बहाने केंद्र सरकार को क्यों धमका रहे थे ? क्या योग शिविर के बहाने लाखों लोगों को इकट्ठा करना, जिस में स्त्रीयां और बच्चे भी थे, पहले से एक सोचा-समझा गया प्लान था ?  और अगर ऐसा है, तो रामदेव बाबा को योग शिविर के बहाने सरकार को धमकाने की इजाजत सरकार, चाहे दिल्ली की हो या केंद्र की, कैसे दे सकती है ?
       यूँ सुप्रीम कोर्ट के निर्णय का स्वागत किया जाना चाहिए. कोर्ट ने जहाँ दिल्ली पुलिस को फटकार लगायी है वहीँ रामदेव बाबा को भी कटघरे में खड़ा किया है. कोर्ट के निर्णय से जहाँ पुलिस, बाबाओं को हेंडल करने में लोकतान्त्रिक ढंग अपनाएगी वही, रामदेव जैसे बाबा लोग योग शिविर  की आड़ में ऐसा बखेड़ा करने को दस बार सोचेंगे.
       वैसे, मीडिया कोर्ट के निर्णय को पचाने की स्थिति में नहीं दीखता. वह इसे, सरकार के विरुध्द लोगों को अपना विरोध जाहिर करने पर ब्रेक लगाने के रूप में देखता है.क्यों न हो, आखिर बाबा रामदेव को मीडिया कवर जो कर रहा था ? मीडिया के पूरे चेनल बाबा रामदेव को टेलीकास्ट कर रहे थे.मीडिया कहता है कि देश की सर्वोच्च न्यायालय का फैसला उनके अपेक्षाओं के अनुरूप नहीं है.सर्वोच्च न्यायालय को यह बात ध्यान में रखनी चाहिए.

धर्मानातार्ण के प्रश्न पर डा. हरिसिंह गौर का डा. आंबेडकर को पत्र

बौध्द धर्मान्तरण के प्रश्न पर डा. हरिसिंह गौर का डा. आंबेडकर को पत्र
हिन्दुओं के व्यवहार से त्रस्त होकर सन 1935  में बाबासाहेब डा. आंबेडकर ने यवला में इस बात की घोषणा की थी कि वे हिन्दू धर्म, जिसमें वे पैदा हुए हैं, त्याग कर बौध्द धर्म की शरण चले जाएँगे। डा. आंबेडकर की इस घोषणा का बड़ा व्यापक असर हुआ था।  हिन्दू मठाधीशों के आलावा हिन्दू धर्म-दर्शन के अध्येयाताओं की नजर भी डा. आंबेडकर की घोषणा पर गई थी।  इनमें सागर विश्वविद्यालय के संस्थापक डा. हरिसिंह गौर भी थे।

विधि और धर्म-दर्शन के अध्येयता के तौर पर डा. हरिसिंह गौर, बाबासाहेब डा. आंबेडकर को भली-भांति जानते थे।  वे डा. आंबेडकर के दर्द और तडप को महसूस कर रहे थे। उन्होंने तुरंत एक पत्र डॉ अम्बेडकर को लिखा-

 "मैंने आपका यवला का भाषण पढ़ा है। आप हिन्दू धर्म से मुक्त होना चाहते हैं।  आज से 2500  वर्ष पूर्व महात्मा बुध्द ने भी इस बात का प्रतिकार किया था। बुध्द की धम्म-देशना का लोगों ने स्वागत किया। हिन्दू धर्म को भी इससे अपरिमित लाभ हुआ।  बुध्द के संदेश ने ब्राह्मणवाद से मुक्ति पाने का मार्ग प्रशस्त किया और समता, स्वतंत्रता तथा  बन्धुत्व के मार्ग पर चलने के लिए इस देश को अवसर मिला। निस्संदेह, बौध्द धर्म ही एकमात्र ऐसा धर्म है, जिसे स्वीकार किया जा सकता है।  इस पत्र के माध्यम से मैं आपको  'स्प्रिट आफ बुध्दिस्म' नामक एक पुस्तक भेज रहा हूँ।  धन्यवाद।"   -
-डा.हरिसिंह गौर.

Tuesday, February 21, 2012

मुंशी एन. एल. खोब्रागडे ( N.L.Khobragade:1924- )

बचपन से ही मैंने मुंशी एन. एल. खोब्रागडे जी के बारे में सुना था. सामाजिक आन्दोलन में उनकी भूमिका के बारे में काफी कुछ पढ़ा था. बालाघाट जिला मेरा जन्म स्थान होने के कारण यह स्वाभाविक ही था. आज, मुझे फक्र है, उनके बारे में कुछ लिखने का, उनके व्यक्तित्व और कृतित्व को समझने का अवसर मिला है। वास्तव में, हमें ऐसे महापुरुषों के बारे अध्ययन करना चाहिए और उससे सीख लेनी चाहिए.
     मुंशी एन. एल. खोब्रागडे जी को म. प्र. में और खासकर बालाघाट जिले में न सिर्फ सामाजिक- आन्दोलन के प्रणेता के रूप में देखा जाता है बल्कि, दलित राजनीति के सूत्रधार के रूप में उन्हें स्मरण किया जाता है. जीवन के अन्तिम पड़ाव में उन्होंने अब साहित्य- सृजन पर खुद को केन्द्रित किया है. आज उनकी उम्र 86  वर्ष पार चुकी है. आईये उनके सामाजिक योगदान को जानने और समझने का प्रयास करें.
 जीवन परिचय -         मुंशी एन. एल. खोब्रागडे का पूरा नाम नत्थूलाल खोब्रागडे है.आपका जन्म 11  अग. सन 1924  को बालाघाट शहर से लगे एक छोटे-से गावं मड़कापार में हुआ था. बड़े होने पर आपका सारा समय बालाघाट में ही बीता है. खोब्रागडे जी शुरू से तीक्ष्ण बुध्दि के थे. मगर, वे गरीब परिस्थिति में पले-बढे थे. बड़े होने पर उन्होंने सामाजिक, धार्मिक और राजनैतिक क्षेत्र में उल्लेखनीय कार्य किया है.
    मुंशी एन. एल. खोब्रागडे जी ने सन 1946  से सामाजिक-आन्दोलन को अपने जीवन का लक्ष्य बनाया था और तब से वे निरंतर सक्रिय हैं. वे आल इण्डिया रिपब्लिकन पार्टी के केन्द्रीय कार्यकारिणी के सदस्य रहे थे. आप  प्रांतीय कार्यकारिणी के उपाध्यक्ष भी रहे.वे जिला बालाघाट कार्यकारिणी के सन 1977  से 1997  तक लगातार 20 वर्षों तक अध्यक्ष रहे.
       राजनीति से सन्यास लेने के बाद उन्होंने दलित चेतना-साहित्य सृजन का काम हाथ में लिया था.वे म.प्र. दलित साहित्य अकादमी जिला शाखा बालाघाट के अध्यक्ष हैं. उन्होंने विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं करीब 100 - 150  लेख लिखे हैं. उन्होंने  21 पुस्तके लिखी हैं, जैसे कि एक इंटरव्यू में उन्होंने बतलाया. उनकी दो पुस्तके खासी चर्चित रही हैं.एक 'भारत की विकृत समाज व्यवस्था और दूसरी 'मध्य-भारत में दलित आन्दोलन का इतिहास'. इन में से पहली पुस्तक बेहद विवादास्पद रही है. इस पुस्तक ने उस समय बालाघाट जिले के सामाजिक ताने-बाने को झकझोर कर रख दिया था. दूसरी पुस्तक में म.प्र. में चले दलित- आन्दोलन का इतिहास है. निश्चित रूप से यह पुस्तक दलित आन्दोलन के शोधार्थियों के लिए एक प्रकाश-स्तम्भ है. प्रस्तुत लेख में यह पुस्तक और उनसे साथ लिया गया इंटरव्यू को आधार बनाया गया है.
विवादित पुस्तक  'भारत की विकृत समाज व्यवस्था' -    मुंशी एन. एल. खोब्रागडे द्वारा लिखी यह पुस्तक बड़ी चर्चित और विवादास्पद रही है. 'भारत की विकृत समाज व्यवस्था'  नामक इस पुस्तक ने उस समय शासन और प्रशासन को हिला कर रख दिया था. विरोध का बवंडर इतना घनिभूत और व्यापक था कि उसकी धुंध म.प्र. ही नहीं पास पड़ोस के राज्यों तक देखी जा सकती थी. समाज खुले तौर पर दो भागों में बंट गया था. महार वर्सेस हिन्दू संघर्ष की खबरें जहाँ-तहां से आ रही थी. हिन्दू पिछड़ी जाति के लोग सामूहिक रूप से महारों पर धावा बोल रहे थे. उनके मकानों को जलाया जा रहा था, प्रापर्टी को नुकसान पहुँचाया जा रहा था. हिन्दू जातियों द्वारा बौध्द महार समाज के विरुध्द रेलियाँ निकाल कर भड़काया जा रहा था. खास कर बालाघाट जिले के गावं-देहातों का सामाजिक ताना-बुना अत्यंत द्वेष-पूर्ण और आक्रोशित बन गया था.
    उक्त घटना के सिलसिले में हुए हिंसात्मक दंगे और लूटपाट के चलते पक्ष-विपक्ष के कई लोगों पर केस दर्ज किये गए थे, जो कई वर्षों तक चलते रहे. मुंशी एन. एल. खोब्रागडे पर भी प्रकरण कायम कर उन्हें गिरफ्तार किया गया था. खोब्रागडे जी के अनुसार, उनका केस लड़ने के लिए कोई हिन्दू वकील तैयार नहीं था. बाध्य हो कर उन्होंने एक मुस्लिम वकील को अपने केस की पैरवी करने को राजी किया.
विवादित पुस्तक में हिन्दू समाज पर ब्राह्मणवाद द्वारा देश के सामाजिक ढांचे को हजारों जातियों और उप-जातियों में बाँट कर राष्ट्रीय एकता और अखंडता को जो खतरा पहुँचाया गया है, उस षड़यंत्र का बड़ी बेबाकी से पर्दाफाश किया गया है.
बालाघाट जिले की सामाजिक स्थिति   -     बालाघाट, जंगली आदिवासी बाहुल्य पिछड़ा हुआ जिला है. जिले की प्रमुख जातियों में  महार, पंवार और लोदी समाज के लोग हैं. सन 1961  की जनगणना के अनुसार, बालाघाट जिले में अनु. जाति के लोगों की संख्या  1,20,000  थी.
      बालाघाट जिला पहले सी. पी.(मध्य भारत) एंड बरार (विदर्भ)  में आता था. मगर, बाद में (सन 1950 ) जब देश का संविधान लागू हुआ तब यही सी. पी. एंड बरार* नए मध्य-प्रदेश राज्य के रूप में अस्तित्व में आया। प्रशासनिक कारणों से लम्बे समय तक बालाघाट जिला विदर्भ से जुड़ा रहने के कारण वहाँ की सांस्कृतिक शैली का प्रभाव यहाँ देखा जा सकताहै।
दूसरे, सन  1800 के आस-पास ईस्ट इण्डिया कम्पनी के शासन में बरार (विदर्भ) में भयंकर अकाल पड़ा था. तब वहां, प्लेग जैसी बीमारी ने महामारी का रूप लिया था जिससे बचने के लिए हजारों, लाखों की संख्या में लोग रोजी-रोटी की तलाश में यहाँ आये थे. इनमे महार जाति के लोग सबसे ज्यादा थे.
महार जाति के लोग बड़े परिश्रमी और खेती में पारंगत होते हैं. सम्पन्न महारों के घर में खेती का काम करने हिन्दू  समाज के लोग नौकर भी रहा करते थे. वे कपड़ा बुनने और दूसरे प्रकार के व्यवसाय भी करते थे. किन्तु बाद में सूती कपड़ा मिलों के कारण महार समाज के लोगों ने बीडी बनाने का व्यवसाय अपना लिया .
  बालाघाट  जिले में पंवार जाति के लोग भी काफी हैं. ये लोग मुस्लिम शासन के आतंक से त्रस्त हो कर धार जिले से बड़ी संख्या में पलायन करते हुए यहाँ आ कर बस गए थे. पंवार जाति के लोगों ने भोले आदिवासियों का लाभ उठा कर खूब जमीन-जायदाद हासिल कर ली थी. वे पटेल, साहूकार और गावं के मुखिया बन  गए थे. ब्राह्मण समाज के लोग गावों में एक्का-दुक्का थे. मगर, वे जितने थे,  गावं के पटेल और मालगुजार थे. स्कूल के गुरूजी और मन्दिरों के पंडितजी भी ब्राह्मण ही थे.
   आदिवासियों में बड़ी संख्या गोंड समाज की हैं. किन्तु, आज भी इनके गरीबी और भुखमरी में कोई अंतर नहीं आया है. कई गावों में इनके पास खेती की जमीन है. किन्तु, वह अधिकतर अन-उपजाऊँ है.
दलित समाज में व्याप्त कुरुतियाँ -     मराठों और पेशवाओं के शासन में महारों पर भयंकर अमानवीय अत्याचार किये गए थे. उन्हें आम रास्तों पर चलने की मनाही थी. सडक पर थूकने तक की आजादी नहीं थी. उनके काम नियत थे, यथा: हिन्दुओं के घरों से मृत पशुओं को उठाना, गावं-मोहल्लों की सफाई करना, मृत्यु और ब्याह आदि के मौकों पर उनके घरों में बाजा बजाना. यद्यपि, समाज में परिवर्तन की हवा चल रही थी, लोग पुरानी प्रथाओं और गंदे व्यवसायों को त्याग रहे थे; मगर, परिवर्तन की यह गति अत्यंत मंथर थी. समाज में मृत पशु का मांस खाना,हिन्दू घरों में दलित स्त्रियों ने जा कर दाई-पन का काम करना, मृत्यु और -ब्याह के मौकों पर बाजा बजाना,त्यौहारों के समय हिन्दू घरों में जा कर भात मांगना आदि कुरुतियाँ बदस्तूर चालू थी.
बालाघाट जिले में सामाजिक-सुधार का आन्दोलन -     बाला घाट जिले में समाज-सुधार के कार्य सन 1946  के दौर में गोंदिया के कालीचरण नंदा गवली द्वारा शुरू किये गए थे. नंदागवली साहेब तब शेड्यूल्ड कास्ट फेडरेशन के कार्य-कर्ता हुआ करते थे.वे राष्ट्रीय स्तर पर फेडरेशन के कार्यों से जुड़े थे.यद्यपि, वे बाद में कांग्रेस में चले गए थे.मगर, समाज सुधार के क्षेत्र में उनके कार्यों को भुलाया नहीं जा सकता.
      बालाघाट जिले में सामाजिक सुधार का आन्दोलन सन 1948-49 के दौर में तेजी पकड़ा था. यह आन्दोलन वारासिवनी के दलित महार समाज के नेता ओंकारदास बोम्बर्डे के नेतृत्व में शुरू हुआ था.ओंकारदास बोम्बर्डे साहेब, वारासिवनी से सटे गावं सिकंदरा के रहने वाले थे.सन 1945 /1942 को नागपुर के कस्तूरचंद पार्क में डा. बाबा साहेब आंबेडकर ने जो ऐतिहासिक भाषण दिया था, ओंकारदास बोम्बर्डे उससे बेहद प्रभावित हुए थे. उन्होंने तभी से प्रण किया था कि बाबा साहेब के आन्दोलन को अपने क्षेत्र में वे एक सैनिक की तरह जीवन की अन्तिम साँस तक चलाते रहेंगे.
         इस आन्दोलन के दूसरे प्रमुख सूत्रधार स्वयं मुंशी एन. एल. खोब्रागडे जी थे. खोब्रागडे जी के अनुसार, इस आन्दोलन में कटंगी के महंत ज्ञानदास साहेब, नांदी के घनश्याम वासनिक, मोह्गावं के संत सेवकदास कठाने साहेब, बिसोनी (लांजी) के तुकाराम मेश्राम ,पालडोंगरी के बाबूदास रामटेके, कुम्हारी के सदाराम मडामे आदि की अहम भूमिका थी. जिले में जो लोग अग्रणी भूमिका में काम रहे थे, उन से अधिकांश धार्मिक प्रवृति के शाकाहारी संत समाज से जुड़े हुए सद्चरित्र, निष्ठावान,कर्तव्य-निष्ठ और ईमानदार कार्य-कर्ता थे.इन में से कुछ लोग ऐसे भी थे, जो जीवन के अन्तिम दिनों तक समाज और संगठन के कार्य में सलग्न रहे.
      सामाजिक-सुधार के दौर में समाज में व्याप्त कुप्रथाओं और कुरूतियों को त्यागने के लिए जन-चेतना सभाएं और सम्मेलन किये गए. अर्थ दंड लगाए गए.कई लोगों को समाज से बहिष्कृत किया गया. यद्यपि इन उपायों से सफलता मिल रही थी किन्तु, गुटबाजी होने का भी ख़तरा था. तब कुछ  दूसरे उपाय भी किये गए. प्राय: गावों में तब, हर एक समाज के नामी पहलवान हुआ करते थे. इन पहलवानों की अपने-अपने मोहल्लों में बड़ी धाक होती थी. ऐसे पहलवानों को आन्दोलन से जोड़ कर फिर उनकी सेवाएं उन लोगों के लिए ली गई जो हठधर्मिता दिखाया करते थे.
       ओंकारदास बोम्बर्डे के नेतृत्व में 'समाज सुधार मंडल' नामक संस्था का गठन किया गया था. सन 1956  आते-आते सामाजिक सुधार के कार्य ने काफी तेजी पकड़ा था. जिस किसी ने अनुशासन तोड़ने की कोशिश की, उसे कठोर दंड दिया गया. सन 1975  में ओंकारदास बोम्बर्डे का निधन हो गया. ओंकारदास बोम्बर्डे के निधन के पश्चात बालाघाट के एडव्होकेट एम्. डी. मेश्राम को अध्यक्ष बनाया गया. एडव्होकेट मेश्राम साहब के निधन के बाद सन 1977  से मुंशी एन. एल. खोब्रागडे अध्यक्ष पद को सुशोभित कर रहे थे.
युवा कार्य-कर्ताओं की टीम -     बालाघाट जिले में युवा कार्य-कर्ताओं की शुरू से ही सामाजिक-सुधार के  आन्दोलन में सक्रिय भूमिका रही है. डा. बाबा साहेब के आन्दोलन से प्रभावित हो कर उन्होंने पहले से ही  कार्यरत वरिष्ठ बुजुर्ग लोगों में आस्था रखते हुए बढ़ चढ़ कर हिस्सा लिया था. इन में रामपायली के केशवराव मेश्राम, कटोरी के डोमादास शेंडे, मोह्गावं के कुंवरलाल घोड़ेसवार,सोनझरा के बलिराम खोब्रागडे,नोनसा के श्रीराम नकाशे,परसवाडा के टी. एम्. भालेराव, कवलीवाडा के चरणदास चौरे, जामडी के रामचंद्र नागवंशी,सारद सिवनी के रामलाल भालाधारे,कटंगी के नामदेव मेश्राम,गटापायली के गणेशराम सतदेवे, वारासिवनी के एडव्होकेट एम्. सी. शंभरकर , हरिदास नागवंशी ,पोतनदास वैद्य आदि विशेष उल्लेखनीय हैं.
 जिला बौध्द संघ का गठन -     जिले में बाबा साहेब डा. आंबेडकर के द्वारा स्थापित भारतीय बौध्द महासभा कार्यरत थी. मगर, केंद्रीय नेतृत्व की शिथिलता और नियंत्रण के अभाव में ठीक से कार्य नहीं हो पा रहा था. इन परिस्थितियों के चलते मुंशी एन. एल. खोब्रागडे के नेतृत्व में  सन 1974  में जिला बौध्द संघ का गठन किया गया. नए सिरे से एक आचार सहिंता बनायीं गई. इस आचार सहिंता को गावं-गावं में पहुँचाया गया. जिला बौध्द संघ के तत्वाधान में सामाजिक नियमों में एकरूपता ला कर समाज के लोगों में सदाचार , संगठन और एकता स्थापित करने का बहुमूल्य काम किया गया.   
        स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात् सन 1951-52  में देश में आम चुनाव हुए थे.वयस्कता प्राप्त  21  वर्ष के प्रत्येक व्यक्ति को मताधिकार का हक मिला.आजादी के आन्दोलन के दौरान  डा. आंबेडकर के नेतृत्व में देश भर में जो दलित आन्दोलन चला,  बालाघाट जिला उस में शुरू से ही भागीदार रहा था.
शेड्यूल्ड कास्ट फेडरेशन की जिले में स्थापना -      पहले यहाँ  शेड्यूल्ड कास्ट फेडरेशन का गठन नहीं हुआ था. ऐसी स्थिति में वारासिवनी से ओंकारदास बोम्बर्डे को निर्दलीय प्रत्यासी की हैसियत से कांग्रेस के नेता अमई के शंकरलाल तिवारी के विरुध्द उतारा गया था. ओंकारदास बोम्बर्डे को चुनाव से हट जाने के लिए बहुतेरे प्रलोभन दिए गए. किन्तु,  वे डट कर खड़े रहे थे. चूँकि, यह पहला मौका था, ओंकारदास बोम्बर्डे अथक प्रयास के बाद भी सीट निकाल नहीं पाए. इसके तत्काल बाद बाबा साहेब आंबेडकर को तार भेज कर प्रार्थना की गई की बालाघाट जिले में 'शेड्यूल्ड कास्ट फेडरेशन' की स्थापना की जाये. तार प्राप्त होते ही बाबा साहेब ने बापू साहेब  पी. एन. राजभोज, दादा साहेब गायकवाड , बाबू हरिदास आवडे, पं. रेवाराम कवाडे आदि नेताओं को शेड्यूल्ड कास्ट फेडरेशन की स्थापना के लिए बालाघाट भेजा और अंतत: सन 1946  में शेड्यूल्ड कास्ट फेडरेशन की यहाँ स्थापना हो गई.
        शेड्यूल्ड कास्ट फेडरेशन के झंडे तले और ओंकारदास बोम्बर्डे के नेतृत्व में बालाघाट जिले ने एक अलग पहचान बनायीं थी.राजनैतिक जाग्रति, समाज सुधार और अनेकों रचनात्मक कार्यों द्वारा डा. बाबा साहेब आंबेडकर के सामाजिक-राजनैतिक आन्दोलन के प्रगति की दिशा में लोगों ने ईमानदारी और अटूट निष्ठां के साथ नि:स्वार्थ भाव से काम किया था.इन में दौलतराम फुलमारी वारासिवनी के, हरिदास शेंडे और गोविन्द बागडे कटोरी, चिंधुजी रामटेके नीलामा, सदाराम मड़ामे कुम्हारी, नारायण राव घोनमोड़े तिरोडी, तिरपुडे तिरोडी, घोड्कूजी भालाधरे मानेगावं (कटंगी), बारकू खोब्रागडे महकेपार, दयाराम तिरपूड़े मोंहगावं (नांदी), रामजी मुख्त्यार बनेरा, लक्ष्मण नंदागवली अमई, बोदलदास बनसोड चरेगावं, रामचंद और हरिदास नागवंशी जामडी, ताराचंद वैद्य और उम्मेद भिमटे किरनापुर, डोडेलाल रामटेके दमोह, लटारु भिमटे मुरझड़ ( फार्म ),डोमाजी वाहने खुर्शीपार, चरणदास चौरे कवलीवाडा, सुखराम डोंगरे लालबर्रा, लोकचंद पटले वारा, ताराचंद उके वारासिवनी, यसोदा बाई ओरमा, शंकरराव गजभिये समनापुर, तुलाराम और कुंवरलाल घोड़ेसवार मोहगावं घाट (नांदी ), सुन्दरलाल मंडलेकर परसवाडा आदि प्रमुख हैं.
      सन 1951-52 के आम चुनाव में कटंगी-रामपायली सुरक्षित सीट से ओंकारदास बोम्बर्डे को चुनाव मे उतारा गया किन्तु, वे चुनाव नहीं जीत  सके. मगर,  इससे क्षेत्र में लोगों को राजनैतिक रूप से जाग्रत करने में भारी सफलता मिली थी.
        डा. बाबा साहेब के धर्मान्तरण के बाद उनकी इच्छा अनुसार, दीक्षा भूमि नागपुर में ही   3  अक्टू. 1957  को उनके लाखों अनुयायियों की उपस्थिति में 'शेड्यूल्ड कास्ट फेडरेशन' को समाप्त कर उसके स्थान पर 'रिपब्लिकन पार्टी आफ इण्डिया' नामक एक राजनैतिक पार्टी का गठन किया गया था.
       म.प्र. में रिपब्लिकन पार्टी और भारतीय बौध्द महासभा का तब, अस्तित्व नहीं था.बालाघाट जिले में सर्व प्रथम इस दिशा में प्रयास किया गया. 15 - 17  मार्च सन 1958  को वारासिवनी में हजारों लोगों के साथ विशाल  अधिवेशन में दोनों संस्थाओं के प्रांतीय शाखाओं का गठन किया गया.बालाघाट जिले में यह दलित समाज का ऐतिहासिक अधिवेशन था.इस अधिवेशन में नागपुर के कर्मवीर बाबू हरिदास आवडे, पं. रेवाराम कवाडे, विधायक पंजाबराव, मजदूर नेता ना. ह. कुंभारे, आन्ध्र प्रदेश से ईश्वरी बाई, उ. प्र. से बी. पी. मौर्य आदि ने शिरकत की थी.
बौध्द धर्मान्तरण आन्दोलन -    भारतीय बौध्द महासभा के गठन के निमित्त भदंत आनंद कौशल्यायन, बाबा साहेब के पुत्र भैयासाहेब यशवंतराव आंबेडकर उपस्थित हुए थे.इसके आलावा, बिलासपुर, रायपुर, दुर्ग, राज नांद गावं, सिवनी,छिंदवाडा, बैतूल, जबलपुर, सागर, इंदौर आदि से हजारों प्रतिनिधि इस अधिवेशन में शामिल हुए थे.
         उक्त अधिवेशन में बौध्द धर्म के प्रकांड विद्वान् भदंत आनंद कौशल्यायन ने 10,000 दलित समाज के लोगों को बौध्द धर्म की दीक्षा दिया था. इसके बाद सन 1959  को लांजी में नागपुर के त्रिपिटिकाचार्य भिक्षु धर्म रक्षित और सीलोन ( श्रीलंका ) के भिक्षु संघरत्न के द्वारा  8,000  दलितों को बौध्द धर्म की दीक्षा दी गई थी. इसी तरह मोहगावं में 5,000  दलित समाज के लोगों की धम्म-दीक्षा हुई थी. इस तरह की सामूहिक धम्म-दीक्षा को लेकर करीब 68,000  दलित समाज के लोगों ने अपनी पुरानी बेड़ियों को काट कर  बौध्द धम्म को अंगीकार किया था.
समता सैनिक दल -      इस अधिवेशन में समता सैनिक दल की टुकड़ियों ने जिले में पहली बार प्रदर्शन किया था. वारासिवनी, एक सैनिक छावनी में तब्दील हो गई थी. शहर की सडकों पर समता सैनिक दल की टुकड़ियों का प्रदर्शन लोगों के लिए कुतूहल का विषय बन गया था. बालाघाट जिले में इसके पहले अनेकों सामाजिक और धार्मिक कार्य-क्रम हुए थे. किन्तु, ऐसा अनोखा और विशाल अधिवेशन लोगों ने पहली बार देखा था.
रिपब्लिकन पार्टी  -       बालाघाट जिले में रिपब्लिकन पार्टी के प्रचार-प्रसार पर जम कर काम हुआ था. पार्टी के प्रत्यासी खड़े किये गए थे. किन्तु, शरू-शुरू में सफलता हाथ नहीं आयी थी. अंतत:  सन 1969  के विधान सभा चुनाव में पार्टी को सफलता मिली. इस चुनाव में कटंगी के कचरूलाल जैन को प्रचंड मत से पहली बार पार्टी की ओर से विजय हासिल हुई. कचरूलाल जैन रिपब्लिकन पार्टी की ओर से विधान सभा में प्रदेश के एक मात्र प्रतिनिधि बन कर गए थे. सन 1977 में लोकसभा के आम चुनाव हुए थे. इस बार कचरूलाल जैन को लोक सभा का प्रत्याशी बनाया गया और पार्टी के ओर से पहला सांसद लोक सभा में चुन कर भेजा गया.  सन 1980  में विधान सभा के चुनाव हुए. इस चुनाव में पार्टी की ओर से खैरलांजी विधान सभा क्षेत्र से डोमनसिंग नगपुरे को प्रत्यासी बना कर विधान सभा में भेजा गया था .
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C P & Berar had 22 Districts in five(Jabalpur, Narbada, Nagpur, Chhatisgarh and Berar) Division. Jabalpur(Jubbulpore) Division had Jabalpur, Sagar, Damoh, Seoni and Mandal District. Narbada Division had Narsinghpur, Hoshangabad, Nimar, Betul and Chhindwara District. Nagpur division had Nagpur, Bhandara, Chanda, Wardha and Balaghat District.Chhatisgarh Division had Bilaspur, Raipur and Durg District. Berar Division had Amraoti. Akola, Ellichpur, Buldhana, Basim and Wun District. In 1956, the Marathi speaking area of Madhya-Pardesh i. e.  Berar and Nagpur division was made the part of Bombay state. Further, in 1960  Bombay state was re-organised. Marathi speaking area was connected with Maharashtra and Gujarati speaking area with Gujarat state.

Monday, February 20, 2012

डी. के. खापर्डे (D.K.Khaparde:1939-2000)

डी  के खापर्डे

अनु सूचित जाति, जन जाति, पिछड़ा वर्ग और कुछ हद तक धार्मिक अल्पसंख्यक; इन वर्गों के मानवीय अधिकारों के प्रति जन-जाग्रति फैलाने का नाम है- बामसेफ। 

और, बामसेफ का नाम है- डी  के खापर्डे।

बामसेफ के संस्थापक  मान्य. डी. के. खापर्डे का जन्म 13 मई 1939 को नागपुर (महाराष्ट्र) में हुआ था।  उनकी पूर्ण शिक्षा नागपुर में ही हुई थी।  पढाई के बाद उन्होंने डिफेन्स में नौकरी ज्वॉइन  कर ली थी।
   
नौकरी के दौरान जब वे पुणे में थे, बी.एस. पी. के संस्थापक  मान्यवर कांशीराम उनके सम्पर्क में आए ।  कांशीरामजी को डॉक्टर  आंबेडकर और उनके आन्दोलन के बारे में विस्तृत मालूमात मान्य. खापर्डे साहेब द्वारा ही हुई थी।
    
पुणे में भारत सरकार के रक्षा विभाग से सम्बन्धित गोला बारूद बनाने  का बहुत बड़ा कारखाना है।  इस कारखाने में लाखों लोग सर्विस करते हैं।  यहाँ पर  अनु.जाति, जन जाति और पिछड़े वर्ग के कर्मचारियों की भारी तादात है। बात, बाबासाहब डा अम्बेडकर जयंती की है, उस दिन ये सारे कर्मचारी एक मंच पर इक्कट्ठे हुए और अल्पसंख्यक समाज के नुमाईंदों को भी समाहित कर 'बामसेफ(BAMSEF) अर्थात बेकवर्ड एंड मायनारिटिस सोसायटीज़ एम्प्लॉईज फेडरेशन  (Backward And Minority Society Employees Federation )  नामक संगठन की स्थापना को मूर्त रूप दिया।
   
वैसे, दलित और पिछड़े समाज के लोग, जो बाबा साहेब डा. आंबेडकर के द्वारा प्रदत्त आरक्षण के बदौलत ऊँचे-ऊँचे पदों पर पहुँच गए थे, काफी समय पहले से उन में इस बात को लेकर गम्भीर चिंतन चल रहा था कि अखिल भारतीय स्तर पर ऐसा एक 'थिंकिग टेंक' होना चाहिए जिस में इस समाज के नौकरी पेशा कर्मचारी और अधिकारी हों और जो लम्बी प्लानिंग के साथ दलित-पिछड़ी जातियों के हितों को ध्यान में रखते हुए, फुले-अम्बेडकरी विचारधारा के तहत  सामाजिक चेतना का काम करे.
    
बामसेफ ( BAMCEF ) अर्थात 'बेकवर्ड एंड मायनारिटिज कम्यूनिटीज एम्प्लाइज फेडरेशन की स्थापना  6 दिस. 1976  को पूना में की गई. फेडरेशन में मायनारिटिज अर्थात अल्पसंख्यकों को भी शामिल किया गया. मायनारिटिज के अधिसंख्यक लोग चाहे मुस्लिम,सिख, ईसाई जिस धर्म के हो, दलित-पिछड़ी जातियों के धर्मान्तरित भाई ही हैं. उनकी पीड़ा और दुःख-सुख दलित और पिछड़ों जैसे ही हैं; शायद, इसी तरह की सोच इसके पीछे रही होगी.  बामसेफ से जुड़े कर्मचारी-अधिकारी ' पे बेक टू सोसायटी' के तहत अपने मनी, माईंड और ब्रेन  का उपयोग सतत सामाजिक-चेतना जगाने के लिए करते हैं.
     
बामसेफ के गठन के बाद जल्दी ही इसमें दरार आ गयी. मान्य. कांशीराम, बामसेफ को सिर्फ 'थिंकिंग टेंक' ही नहीं रखना चाहते थे. वे इस थिंकिग टेंक की परिणति जल्दी ही एक राजनैतिक पार्टी के रूप में देखते थे. मगर, मान्यवर कांशीराम साहब के अन्य साथी इस फेवर में नहीं थे. खापर्डे और इनके कुछ साथी शायद इस सोच के थे कि पहले सामाजिक आन्दोलन को इतना सशक्त बनाया जाये कि उसकी परिणति, जो निश्चित रूप से राजनैतिक परिवर्तन है, को रोका न जा सके.

बामसेफ में अपने कुछ साथियों की ऐसी सोच के चलते सन 1981  में   मान्यवर कांशीराम साहब ने  डी एस फोर (DS4) का गठन किया. फिर,  जल्दी ही उन्होंने सन 1984 में 'बहुजन समाज पार्टी' की स्थापना की. राजनीति  ही सब तालों की कुंजी है, मान्य. कांशीराम की इस उदघोषणा  के बाद बामसेफ के अन्दर, ऐसा लगता है, विचारधाराओं में काफी बड़ी दरार आ गयी . तब, मान्य. डी के खापर्डे के नेतृत्व में बामसेफ को अलग से रजिस्टर्ड कराया गया.  यह घटना सन 1987 की है.
    
डी. के. खापर्डे साहेब ने अपने समान विचारधाराओं के साथियों के साथ इस संगठन को स्वतन्त्र रूप से चलाने की योजना बनायीं. उन्होंने डिफेन्स की अपनी नौकरी से रिजाइन कर दिया. उन्होंने अब अपना पूरा समय संगठन को देने का निश्चय किया. उनके नेतृत्व में देश के कोने-कोने में केडर केम्प आयोजित किये गए. संगठन के लिए काम करने वाले कार्य-कर्ता का एक बड़ा नेट वर्क तैयार किया .
     
नि;संदेह, बामसेफ ने सामाजिक आन्दोलन की दिशा में उल्लेखनीय कार्य किया है. खास कर नौकरी-पेशा दलित-पिछड़ी जातियों और अल्पसंख्यक वर्ग के कर्मचारी-अधिकारीयों को एक मंच दिया है. बाबा साहेब डा. आंबेडकर ने इन नौकरी-पेशा लोगों से जो अपेक्षा की थी, उस पर काम किया जा रहा है.
     
युग-पुरुष डी के खापर्डे साहब, बामसेफ के संस्थापक देश के कोने कोने में फैले अपने इस संगठन के कार्य-कर्ताओं को छोड़ कर 29 फ़र. सन 2000  को हमसे अलविदा हो गए.

Sunday, February 19, 2012

हलके-फुल्के क्षण

 हलके-फुल्के क्षण

फायर ब्रिगेड की गाड़ी पिछले दो दिनों से बिगड़ी पड़ी थी. इस बीच एक महिला का फोन आया- "हमारे घर में आग लग गई है, जल्दी आईये."
ड्राइव ने जवाब दिया-"मेडम, आग पर पानी डालते रहिये."
"वही तो कर रही हूँ . मगर, आग नहीं बुझ रही है."
"तो हम भी क्या कर लेंगे ? आखिर,हम भी तो वही करेंगे ? ड्राइवर ने जवाब दिया.

Saturday, February 18, 2012

राजश्री साहू महाराज(Sahu Maharaj:1874-1922)

राजश्री  छत्रपति साहू महाराज (1874-1922)  

 कुछ लोग होते हैं कि राजा-महाराजाओं की चारदीवारों से कूद कर झोपड़ियों तक जा पहुँचते हैं और वहां ऐसे दिए  रोशन करते हैं कि आने वाली इतिहास की  सैकड़ों और हजारों परतें भी उस रोशनाई को दबा नहीं पाती. कोल्हापुर के महाराजा राजश्री साहू महाराज ऐसे ही व्यक्तित्व के धनी थे. एक स्टेट के शासक होकर उन्होंने जो कार्य किया, वह नूतन था, अभिनव और अनुकरणीय था.

राजर्षि छत्रपति शाहू महाराज का  जन्म 26 जून 1874 में हुआ था. उनके बचपन का नाम यशवंत रॉव था।  बाल्य-अवस्था में ही बालक यशवंतराव को छत्रपति साहू महाराज की हैसियत से कोल्हापुर रियासत की राजगद्दी को सम्भालना पड़ा था.
छत्रपति साहू महाराज  की माता राधाबाई मुधोल राज्य की राजकन्या थी। पिता जयसिंग रॉव उर्फ़ अबासाहेब घाटगे कागल निवासी थे।  उनके दत्तक पिता शिवाजी चतुर्थ व दत्तक माता आनंदी बाई थी। राजर्षि छत्रपति शाहू महाराज केवल 3  वर्ष के थे तभी उनकी सगी माँ राधाबाई 20  मार्च 1977  को मृत्यु को प्राप्त हुई। छत्रपति संभाजी की माँ का देहांत बचपन में ही हुआ था।  इसलिए उनका लालन-पालन जिजाबाई ने किया था। छत्रपति साहू महाराज की उम्र जब 20  वर्ष थी, उनके पिता अबासाहेब घाटगे की मृत्यु(20  मार्च 1886 )  हुई थी।

छत्रपति शिवाजी महाराज ( प्रथम) के दूसरे पुत्र के वंशज शिवाजी (चतुर्थ ) कोल्हापुर में राज्य करते थे. ब्रिटिश षडयंत्र और अपने ब्राह्मण दीवान की गद्दारी की वजह से जब शिवाजी (चतुर्थ ) का कत्ल हुआ तो उसकी विधवा आनंदीबाई ने अपने एक जागीरदार अबासाहेब घाटगे के पुत्र यशवंतराव को 17  मार्च सन 1884  में गोद लिया था. अब उनका नाम शाहू छत्रपति महाराज हो गया था।

छत्रपति शाहू महाराज की शिक्षा राजकोट के राजकुमार विद्यालय में हुई थी।  प्रारंभिक शिक्षा के बाद आगे की पढ़ाई  रजवाड़े में ही एक अंग्रेज  शिक्षक 'स्टुअर्ट मिटफर्ड फ्रेज़र ' के जिम्मे सौपी  गई थी।  अंग्रेजी शिक्षक और अंग्रजी शिक्षा का प्रभाव छत्रपति शाहू महाराज के दिलों-दिमाग पर गहराई से पड़ा था।  वैज्ञानिक सोच को न सिर्फ वे मानते थे बल्कि इसे बढ़ावा देने का हर संभव  प्रयास  करते थे। पुरानी प्रथा, परम्परा  अथवा काल्पनिक बातों को वे महत्त्व नहीं देते थे।

छत्रपति शाहू छत्रपति महाराज का विवाह 17 वर्ष की उम्र में 1 अप्रेल 1891 को  बडौदा के मराठा सरदार  गुणाजी रॉव खानवीकर की बेटी लक्ष्मीबाई से हुआ था. उनका राज्याभिषेक  2 अप्रेल सन 1894 को 20  वर्ष की उम्र में हुआ था।

राज्य की रियासत का नियंत्रण अपने हाथ में लेते ही छत्रपति साहू महाराज ने सर्व प्रथम बलात-श्रम की प्रथा को ख़त्म करने का आदेश निकाला था.उस समय देश के अन्य हिस्सों की तरह कोल्हापुर में भी ब्राह्मणों का एक-छत्र राज था.
   छत्रपति साहू महाराज हर दिन बड़े सबेरे ही पास की नदी में  स्नान करने जाया करते थे. परम्परा से चली आ रही प्रथा के अनुसार, इस दौरान ब्राह्मण पंडित मंत्रोच्चार किया करता था. एक दिन बंबई से पधारे प्रसिध्द  समाज सुधारक राजाराम शास्त्री भागवत भी उनके साथ हो लिए  थे. घटना 1899  के नव. माह की है। महाराजा कोल्हापुर के स्नान के दौरान ब्राह्मण पंडित  द्वारा मंत्रोच्चार किये गए श्लोक सुन कर राजाराम शास्त्री अचम्भित रह गए. पूछे जाने पर ब्राह्मण पंडित ने कहा की चूँकि महाराजा शूद्र  हैं, इसलिए वे वैदिक मंत्रोच्चार न कर पौराणिक मंत्रोच्चार करते है. ब्राह्मण पंडित की बातें साहू महाराज को अपमानजनक लगी. उन्होंने इसे एक चेलेंज के रूप में लिया.
  महाराज के सिपहसालारों ने एक प्रसिध्द ब्राह्मण पंडित नारायण भट्ट सेवेकरी को महाराजा का यज्ञोपवित संस्कार करने को राजी किया.यह सन 1901  की घटना है. जब यह खबर कोल्हापुर के ब्राह्मणों को हुई तो वे बड़े कुपित हुए. उन्होंने नारायण भट्ट  पर कई तरह के पाबंदी लगाने की धमकी दी. तब, इस मामले पर साहू महाराज ने राज-पुरोहित से सलाह ली. मगर, राज-पुरोहित ने भी इस दिशा में कुछ करने में अपनी असमर्थता प्रगट कर दी. जब यह बात फैली तो लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक ने ब्राह्मणों का पक्ष लेते हुए साहू महाराज की निंदा की थी. साहू महाराज ने गुस्सा हो कर राज-पुरोहित को बर्खास्त कर दिया.

सन 1902  के मध्य में छत्रपति साहू महाराज इंग्लैण्ड गए हुए थे. उन्होंने वही से एक आदेश जारी कर कोल्हापुर  राज्य के अंतर्गत शासन-प्रशासन की  50 %  सीटें पिछड़ी जातियों के लिए आरक्षित कर दी. महाराजा के इस आदेश से कोल्हापुर के ब्राह्मणों पर जैसे गाज गिर गयी. स्मरण रहे, सन 1894  में जब  उन्होंने राज्य की बागडोर सम्भाली थी, कोल्हापुर के सामान्य प्रशासन में  कुल 71  पदों में से  60  पर ब्राह्मण अफसर बैठे थे. इसी प्रकार  500 लिपिकीय  पदों में से मात्र 10  गैर-ब्राह्मण थे. परन्तु पिछड़ी जातियों को अवसर उपलब्ध कराने के कारण सन 1912  में 95  पदों में से गैर-ब्राह्मण अफसरों की संख्या  35  पहुँच गयी थी.

जैसे ही पिछड़ी जातियों को आरक्षण देने का आदेश प्रसारित हुआ, पडोसी  राज्यों के ब्राह्मणों को भी भारी कष्ट हुआ था। ऍड गणपत रॉव अभ्यंकर जो सांगली की पटवर्धन रियासत में मुनीम  था, कोल्हापुर आकर छत्रपति साहू महाराज  से जाति  पर आधारित आरक्षण न देने को कहा । छत्रपति साहू महाराज,  ब्राह्मण गणपत रॉव अभ्यंकर को लेकर अपने घोड़ों के अस्तबल गए। अस्तबल के सभी घोड़े उनके मुँह बंधे थैले के चने खा रहे थे। यह नज़ारा देख राजर्षि छत्रपति साहू महाराज ने आदेश दिया कि घोड़ों के मुँह में बंधे थैले खोल कर उनमें रखे चनों को नीचे एक बड़ी दरी में डाल दिया जाय ।
आदेश का पालन होने के थोड़ी ही देर बाद जो तगड़े घोड़े थे , वे अपने से कमजोर किस्म के घोड़ों को परे ढकेलते हुए दरी में रखे चनों पर फिर से टूट पड़े किन्तु जो कमजोर किस्म के घोड़े थे , वे ताकतवर घोड़ों की दुलत्ती के बाहर होकर एक ओर खड़े हो गए। यह तमाशा देख राजर्षि छत्रपति साहू महाराज ने ब्राह्मण गणपत रॉव अभ्यंकर से कहा - अभ्यंकर ! इन कमजोर घोड़ों को मैं क्या करूं ?  उन्हें गोली मार दूँ ? अभ्यंकर को समझ नहीं आ रहा था की राजर्षि छत्रपति साहू महाराज को क्या कहे !

    सन 1903  में साहू महाराज ने  कोल्हापुर स्थित  शंकराचार्य मठ की सम्पत्ति  जप्त करने का आदेश दिया था. दरअसल, मठ को राज खजाने से भारी मदद दी जाती थी. कोल्हापुर के पूर्व महाराजा के द्वारा अग. 1863  में प्रसारित एक आदेश के अनुसार, कोल्हापुर स्थित मठ के शंकराचार्य को अपने उत्तराधिकारी की नियुक्ति से पहले महाराजा से अनुमति लेनी आवश्यक थी. परन्तु,  तत्कालीन शंकराचार्य उक्त आदेश को दरकिनार करते हुए संकेश्वर मठ में रहने चले गए थे, जो कोल्हापुर रियासत के बाहर था. 23 फर. 1903  को शंकराचार्य ने अपने उत्तराधिकारी की नियुक्ति की थी. यह नए शंकराचार्य, लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक के करीबी थे. जुला. 10 , 1905  को इन्हीं शंकराचार्य ने घोषणा की कि चूँकि, कोल्हापुर भोसले वंश की जागीर रही है, जो कि क्षत्रिय घराना था. इसलिए राज गद्दी के उत्तराधिकारी साहू महाराज स्वाभविक रूप से क्षत्रिय है.
    इसी तरह की एक और बड़ी मजेदार घटना है. ब्राह्मणों से तंग आकर एक बार महाराजा कोल्हापुर ने एक  आदेश में कहा था कि चूँकि, ब्राह्मणों का पेशा पूजा-पाठ और शास्त्रीय-चर्चा है. अत: कोल्हापुर रियासत के ब्राह्मण मंत्रियों, हाकिमों, सेनापतियों, और दूतों को उनके पदों से हटा कर शास्त्र-शिक्षादी कामों में लगाया जाता है.क्योंकि, मनुस्मृति के अनुसार, यह सुनिश्चित करना राजा का यह कर्त्तव्य है. ब्राह्मणों ने रो-गा कर बड़ी मुश्किल से साहू महाराज से क्षमा मांगी थी.
    हिन्दू समाज चातुर्य-वर्ण व्यवस्था के तहत चार वर्गों में विभाजित था. चारों वर्णों के अधिकार और कर्त्तव्य निश्चित थे.सबसे ऊपर ब्राह्मण थे. ब्राह्मणों का काम शिक्षा प्राप्त करना, पूजा तथा पंडिताई करना और राज-सत्ता को सलाह देना था. क्षत्रियों का कार्य राज्य की रक्षा करना था. वैश्यों का काम व्यापार और शूद्रों का लोगों की सेवा करना था. एक पांचवा वर्ण और था, अति-शूद्र. अति-शूद्र में अस्पृश्य जातियां आती थी. अस्पृश्य जातियों का काम साफ़-सफाई था.
     शूद्रों और अति-शूद्रों की संख्या अधिक थी मगर, शासन-प्रशासन में उनकी भागीदारी नहीं थी. सेवा के बदले उन्हें मजदूरी पाने का अधिकार भी नहीं था. जो कुछ मिलता, उसी में संतुष्ट रहना था. यह हिन्दू धर्म और उनके दर्शन का विधान था. इस विधान का पालन करवाना राज्य का कर्तव्य था.राजा ब्राह्मण मंत्रियों की राय मानने के लिए बाध्य था.ब्राह्मणों ने समाज और राज-सत्ता में खुद को पवित्र और श्रेष्ठ घोषित कर रखा था. यद्यपि ब्राह्मणों की संख्या 3 %  थी मगर, शासन-प्रशासन में  75 से 100 %  तक ब्राह्मण होते थे. राज्य और समाज की यह व्यवस्था सदियों से चली आ रही थी. इस व्यवस्था को जो तोड़ने का प्रयास करता, राजसत्ता द्वारा सख्ती से कुचल दिया जाता था.
      लोगों में यह आम धारणा होती थी कि राज-शासन चलाने के लिए किसी राज-वंश में पैदा होना जरुरी है और शायद इसलिए, राजकुमारों का पालन-पोषण विशेष ढंग से किया जाता था. यद्यपि यह मिथक कुछ  मौकों पर टूटा है. मगर, ऐसा कम ही हुआ है. बहरहाल, मंत्री ब्राह्मण और राजा भी ब्राह्मण या क्षत्री हो तो किसी को कोई दिक्कत नहीं थी. मगर, राजा की कुर्सी पर वैश्य या फिर शुद्र वर्ण का कोई शख्स बैठा हो तो दिक्कत स्वभाविक होनी थी. छत्रपति साहू महाराज, क्षत्रिय नहीं, शूद्र मानी गयी जातियों में आते थे.स्पष्ट है, छत्रपति साहू महाराज की परेशानियों को समझा जा सकता है. कोल्हापुर रियासत के शासन-प्रशासन में पिछड़ी जातियों का प्रतिनिधित्व नि;संदेह उनकी अभिनव पहल थी. ?
    राजश्री छत्रपति साहू महाराज ने यही नहीं किया बल्कि, पिछड़ी जातियों समेत समाज के सभी वर्गों मराठे, महार, ब्राह्मण, क्षत्री, वैश्य, क्रिश्चियन, मुस्लिम और जैन सभी के लिए अलग-अलग सरकारी संस्थाए खोलने की पहल की. साहू महाराज ने उनके लिए स्कूल और छात्रावास खोलने के आदेश जारी किये. जातियों के आधार पर स्कूल और छात्रावास असहज  लग सकते हैं. मगर, नि;संदेह यह अनूठी पहल थी उन जातियों को शिक्षित करने के लिए जो सदियों से उपेक्षित थी. उन्होंने दलित-पिछड़ी जातियों के बच्चों की शिक्षा के लिए खास प्रयास किये थे. उच्च शिक्षा के लिए उन्होंने आर्थिक सहायता उपलब्ध कराई थी. साहू महाराज के प्रयासों का परिणाम उनके शासन में ही दिखने लग गया था.स्कूल और कालेजों में पढने वाले पिछड़ी जातियों के लडके/लडकियों की संख्या में उल्लेखनीय प्रगति हुई थी.
      कोल्हापुर के महाराजा के तौर पर साहू महाराज सभी जाति और वर्गों के लिए काम कर रहे थे. उन्होंने 'प्रार्थना समाज' के लिए उतना ही काम किया था. राजाराम कालेज का प्रबंधन उन्होंने 'प्रार्थना समाज' को दिया था. वेदाध्ययन के लिए उन्होंने स्कूल खोला था. ब्राह्मण समाज के विद्यार्थियों के लिए उन्होंने अलग से स्कूल और छात्रावास खोले थे.
     सामाजिक न्याय के इस कार्य में उन्हें कितना विरोध का सामना करना पड़ा, यह तो हम देख चुके हैं. एक बार लोकमान्य तिलक गुट की ओर से उन्हें जान से मारने की  धमकी मिली थी. इस पर उन्होंने कहा था कि वे गद्दी छोड़ सकते हैं मगर, अपने सामाजिक प्रतिबध्दता के कार्यो से वे पीछे नहीं हट सकते.यह अलग बात है कि जब तिलक पूना के अस्पताल में भर्ती है, वे देखने गए थे ताकि उनका इलाज बेहतर ढंग से हो सके. विरोधियों के प्रति ऐसा सौम्य व्यवहार, राजश्री छत्रपति साहू महाराज ही कर सकते थे.
      अप्रेल 15 ,  1920  को नाशिक में 'उदोजी विद्यार्थी' छात्रावास नीव का पत्थर रखते हुए साहू महाराज ने कहा था कि जातिवाद का अंत जरुरी है. जाति को समर्थन देना अपराध है.हमारे समाज की उन्नति में सबसे बड़ी बाधा जाति है.जाति आधारित संगठनों के निहित स्वार्थ होते हैं. निश्चित रूप से ऐसे संगठनों को अपनी शक्ति का उपयोग जातियों को मजबूत करने के बजाय इनके खात्मे में करना चाहिए.
      साहू महाराज ने  15  जन. 1919   के अपने आदेश में कहा था कि उनके राज्य के किसी भी कार्यालय और गावं पंचायतों में भी दलित-पिछड़ी जातियों के साथ समानता का बर्ताव हो, यह सुनिश्चित किया जाये.उनका स्पष्ट कहना था कि छुआछूत को बर्दास्त नहीं किया जायेगा. उच्च जातियों को दलित जाति के लोगों के साथ मानवीय व्यवहार करना ही चाहिए.जब तक आदमी को आदमी नहीं समझा जायेगा, समाज का चौतरफा विकास असम्भव है.
        साहू महाराज ने कोल्हापुर के म्युनिसपल्टी के चुनाव में अछूतों के लिए सीटें आरक्षित की थी. यह पहला मौका था की राज्य म्युनिसपल्टी का अध्यक्ष अस्पृश्य जाति से चुन कर आया था. साहू महाराज ने जब देखा कि अछूत/पिछड़ी जाति के छात्रों की राज्य के स्कूल-कालेजों में पर्याप्त संख्या हैं तब, उन्होंने एक आदेश से इनके लिए खुलवाये गए पृथक स्कूल और छात्रावासों को बंद करा कर उन्हें सामान्य/ उच्च जाति के छात्रों से साथ पढने की सुविधा प्रदान की.
छत्रपति शाहू महाराज ने 1917  में विधवा पुनर्विवाह का कानून और 1919  में अंतर्जातीय विवाह को कानूनी मान्यता प्रदान की।
      छत्रपति  साहू महाराज अस्पृश्य जाति के लोगों के साथ भोजन करने में भी नहीं झिझकते थे. वे अपने आलोचकों से कहते थे कि उन्हें इस बात कि परवाह नहीं है कि वे क्या सोचते हैं ? तब,  दलित जातियों के महार समाज के लोगों को गावं में उनकी सेवा के एवज में पड़ती( अनुपजाऊ ) जमीन का एक छोटा-सा टुकड़ा देने का रिवाज था.इसे 'वतन' कहा जाता था. चूँकि, यह उनके परिवार की आवश्यकता के लिए जरा भी पर्याप्त नहीं था. अत: गावं के लोग महारों को कुछ अनाज देते थे. इसे 'बलुता' कहा जाता था. महार वतन और बलुता ऐसी प्रथा थी कि महार समाज के लोग गावों में बलात-श्रम के लिए बाध्य थे.साहू महाराज ने 25  जून 1918  को एक आदेश निकाल कर इस प्रथा को अपराध करार दिया.
         देश में चल रहे आजादी के आन्दोलन के सन्दर्भ में साहू महाराज का तर्क था कि ब्रिटिश हुकूमत से  आजादी उन्हें  भी चाहिए. मगर, इसके साथ ही वे ब्रिटिश सरकार से इस बात का  वादा चाहते थे कि आजाद भारत में किसी खास वर्ग का एकाधिकार नहीं होगा. सत्ता हस्तांतरण के पहले दलित और पिछड़ी जातियों की सत्ता में भागीदारी सुनिश्चित की जानी चाहिए.
      ये छत्रपति साहू महाराज ही थे जिन्होंने बालक भीमराव आंबेडकर को विलायत भेजने में अहम भूमिका अदा की. महाराजाधिराज को बालक भीमराव के तीक्ष्ण बुध्दि के बारे में पता चला तो वे खुद बालक भीमराव का पता उठा कर मुम्बई की सीमेंट परेल चाल में मिलने गए ताकि उन्हें किसी सहायता की जरुरत हो तो दी जा सके. छत्रपति साहू महाराज में डा. आंबेडकर के 'मूकनायक समाचार पत्र' के प्रकाशन में भी सहायता की थी. महाराजा के राज्य में कोल्हापुर के अन्दर ही दलित-पिछड़ी जातियों के दर्जनों समाचार पत्र और पत्रिकाए प्रकाशित होती थी. सदियों से जिन लोगों को अपनी बात कहने का हक नहीं था, महाराजा के शासन-प्रशासन ने उन्हें बोलने की स्वतंत्रता दी थी.
      साथियों, ये महाराजाधिराज छत्रपति साहू महाराज ही थे जिन्होंने दलित समाज को सम्बोधित करते हुए  सर्व प्रथम कहा था की उन्हें अब चिंता करने की जरुरत नहीं है. क्योंकि, उनके बीच डा. अम्बेकर जैसा उनके हितों को देखने वाला प्रखर नेता पैदा होगया है.यह घटना नागपुर की है. दलितों के राजनैतिक अधिकारों के सम्बन्ध में 30 -31  मई से  1  जून  1920 को  'अखिल भारतीय बहिष्कृत  समाज '  के बेनर तले नागपुर के कस्तूरचंद पार्क में तीन दिन का एक विशाल अधिवेशन हुआ था.इस अधिवेशन में बाबा साहेब डा. भीमराव आंबेडकर मौजूद थे.अधिवेशन की अध्यक्षता महाराजाधिराज छत्रपति साहू महाराज ने की थी. दलितों के राजनैतिक अधिकारों के सम्बन्ध में  राष्ट्रीय स्तर का यह पहला अधिवेशन था.  अधिवेशन में सम्पूर्ण भारत के दलित प्रतिनिधि उपस्थित हुए थे.
         इस अधिवेशन में राजश्री साहू महाराज का ऐतिहासिक भाषण हुआ था. आपने कहा था, समाज सेवा के पवित्र काम में नेतागिरी द्वारा अपना डमरू बजा कर दलित समाज के प्रति झूठी सहानुभूति दिखाने वाले कुछ लोग इस देश में विद्यमान हैं जो अपनी कूटनीति के द्वारा समाज की सच्ची सेवा करने वाले सेवकों का पैर खींचने का काम कर रहे हैं.दलित समाज को ऐसे नेताओं से सावधान रहना चाहिए. मैं दलित समाज की सेवा करने के लिए सदैव तैयार हूँ और भविष्य में भी सदैव तत्पर रहूंगा. मैंने अपने राज्य में दलितों के लिए कुछ काम किया है और आगे भी करता रहूंगा. मैं ब्राह्मणों का नहीं ब्राह्मणवाद का विरोधी हूँ. यह व्यवस्था अब बंद होनी चाहिए.
          आप लोगों को अस्पृश्य के शब्द से सम्बोधित किया जाता है, जो निंदनीय है. तुम लोग अस्पृश्य नहीं हो. तुम अस्पृश्य मानने वाले उन लोगों से अधिक बुध्दिमान हो, अधिक पराक्रमी, अधिक विचारवान और अधिक निस्वार्थी राष्ट्र के प्रमुख घटक के रूप में प्रसिध्द हो. मंचासीन डा. भीमराव रामजी आंबेडकर की और देख कर छत्रपति साहू महाराज ने कहा था, आपको डा. आंबेडकर जैसा ओजस्वी  विद्वान् नेता प्राप्त हो गया है. वे आपका सही दिशा में मार्ग-दर्शन करेंगे, इसका मुझे पूर्ण विश्वास है. यदि मेरा सहयोग आवश्यक समझा गया तो मैं सदैव तैयार रहूंगा.

राजश्री छत्रपति साहू महाराज  ने  ड़ॉ  आंबेडकर और भास्कर रॉव  जाधव को अग्रेजों से पृथक प्रतिनिधित्व की मांग रखने की सलाह दी थी। बाल गंगाधर तिलक ने इसका जोरदार तरीके से विरोध किया।  14  फर. 1918  को अथनी  (बेलगाँव )की आम सभा को सम्बोधित करते हुए कहा कि  'तेली , तांबोली  और कुणबट विधि मंडल में जा कर क्या हल चलाएंगे ?'  इसके कुछ दिन बाद पंढरपुर में एक आम सभा हुई।  वहां गाडगे बाबा उपस्थित थे।  तिलक ने उनसे आग्रह करते हुए कहा - गाडगे महाराज हमें मार्ग दर्शन  करेंगे। बाबा तिलक के आग्रह को न टाल सके और मंच पर आ कर बोले - "मैं पारित, धोबी,  पीढ़ी दर पीढ़ी आपके कपड़े धोने वाला ।  मैं आपको मार्ग-दर्शन कैसे करूं ?"  गाडगे बाबा ने तिलक की ओर देखते हुए कहा - "तिलक महाराज! आप कुछ भी करों , लेकिन हमें बामण  बना दो।  आप कहते हैं कि बामण  के अलावा किसी को भी विधि मंडल में नहीं जाना चाहिए।  इसलिए आप हमें ब्राह्मण बना दो।"

एक बार छत्रपति साहू महाराज ने बातों के प्रवाह में अपने मित्र बैरिस्टर शामरॉव केलवकर को खुद के साथ हुई  घटना का जिक्र करते हुए बतलाया था - "केवलकर ! मेरी इच्छा होती है कि सम्पूर्ण रियासत के दौरे पर निकलूँ  और प्रत्येक गाँव के महारवाड़े में जाकर भोजन करूं।"  केवलकर द्वारा महाराज को ऐसा लगने  की वजह पूछने पर राजर्षि  छत्रपति साहू महाराज ने कहा-  "सुनों केवलकर, एक बार मैं सतारा गया था।  वहां हमारे लिए भोजन बन रहा था।  जहाँ भोजन बन रहा था , मैं देखने के लिए गया कि कितनी देर है। तभी,  एक ब्राह्मण रसोइए  ने मुझे रोक दिया। उसने कहा- 'यहाँ घूमने नहीं दिया जायेगा।  आपके छूने से भारी गड़बड़ होगी।'  अब सोच लो, अस्पृश्यों के साथ क्या होता होगा ? इसीलिए मुझे लगता है कि मैं  खुद प्रत्येक गाँव के महारवाड़े में जाकर भोजन करूं।"

महाराज के अस्तबल में गंगाराम कांबले नाम का एक कर्मचारी था।  वह महार जाति का था। एक दिन जोरों की प्यास लगने पर पानी मांगा। किन्तु किसी ने उसको तवज्जो नहीं दी।  तब उसने कुछ दूरी पर रखे घड़े से पानी निकाल  कर पी  लिया।  किन्तु तब यह दूसरों को मालूम हुआ तो लोगों ने उसे पीट -पीट कर अधमरा कर दिया।  मामला राजर्षि छत्रपति महाराज के पास पहुंचा।  महाराज ने संबंधित कर्मचारियों की जमकर  धुनाई की।  गंगाराम काम्बले के साथ  और कोई अनहोनी घटना न हो इसलिए महाराज ने उसे सेवामुक्त कर दिया।  किन्तु  गंगाराम काम्बले के सामने रोजी-रोटी का प्रश्न मुंह बाए खड़ा था।  महाराज ने उसे आवश्यक पूंजी देकर होटल खोलने को कहा।  सवाल था कि गंगाराम काम्बले के होटल में जाता कौन ?  महाराज ने एक तरीका निकला।
महाराजा प्रतिदिन तुलजा भवानी के दर्शन को जाया करते थे। अब उनका रथ गंगाराम काम्बले के होटल  जिसे महाराजा ने ' सुधारक होटल' नाम दिया था , प्रतिदिन रुकने  लगा। महाराजा आदेश देते - गंगाराम! 25  फूल फक्कड़ चाय।
तुकाराम बुआ आण्णा जी गणेशचार्य जो 3 री पास थे, को शाहू महाराज ने कचहरी में लिपिक का काम करने का अधिकार पत्र दिया।  यह देख ब्राह्मण कुपित हुए। लिखना-पढ़ना तो अब तक ब्राह्मणों का एकाधिकार था।  एक ब्राह्मण के इसी तरह की शिकायत करने पर महाराज ने उससे कहा-  आप अपना मुकदमा उनके पास मत  जाइए।  जब बात नहीं बनी तो दूसरे ब्राह्मण कचहरी प्रमुख ने राज दरबार को प्रेषित गोपनीय रिपोर्ट में टीप लिखा- 'महाराज द्वारा नियुक्त नया कर्मचारी बिलकुल निकम्मा है।  उसे कुछ नहीं आता।'
शाहू महाराज ने कचहरी प्रमुख को नोटिस भेजा - 'आप कचहरी प्रमुख हैं और मेरी दृष्टि में आप अत्यंत दक्ष हैं। आपकी कार्य-दक्षता को देखते हुए मैंने उस व्यक्ति को आपके पास  भेजा है। किन्तु आपका गोपनीय पत्र आपकी योग्यता पर प्रश्न खड़ा करता है।अगले 15  दिन के अंदर अगर उस व्यक्ति के कार्य में सुधार नहीं हुआ तो आपका एक महीने का वेतन काट लिया जायेगा। हो सकता है , आपको आगे चल कर अपना पद भी छोड़ना पड़े।

एक बार राजर्षि छत्रपति शाहू महाराज की पत्नी लक्ष्मी बाई ने 'चातुर्मास ' व्रत में भागवत कथा कराने का आग्रह किया।  शाहू महाराज समझते रहे कि  भागवत कथा में कुछ धरा नहीं है किन्तु रानी साहिबा मानने को तैयार नहीं थी। दरअसल, उन्होंने बड़ी रानी साहिबा से अनुमति ले ली थी।  महाराजा ने बड़ी रानी साहिबा से कहा कि वह 'मत्य पुराण' का पाठ  अवश्य करवाये। पीठिका पर बैठे ब्राह्मण ने जब 70  वें अध्याय को पढ़ा तो बड़ी रानी साहिबा चप्पल लेकर ब्राह्मण को मारने दौड़ पड़ी।  बीच बचाव करते हुए शाहू महाराज ने ब्राह्मण को चले जाने को कहा।      

       छत्रपति साहू महाराज ने राजाराम कालेज की स्थापना की थी. उन्होंने कोल्हापुर में गैर-ब्राह्मण जाति के बच्चों के लिए जगह-जगह छात्रावास खोले थे.बच्चों की शादी को उन्होंने प्रतिबंधिंत  किया. उन्होंने विधवा विवाह और अंतर्जातीय-विवाह को प्रोत्साहित करने के लिए उल्लेखनीय कार्य किया था. उन्होंने पहल करके कई गैर-ब्राह्मण युवकों को पुजारी बनने के लिए प्रशिक्षित किया.

कोल्हापुर रियासत को पहलवानी के लिए जाना जाता था. यह छत्रपति साहू महाराज की देन थी. महाराज स्वयं एक मल्लयोद्धा थे। अकेले कोल्हापुर में 200 अखाड़े थे। राजश्री साहू महाराज एक विजनरी पर्सनालिटी थे। तब, उन्होंने कोल्हापुर में एक बड़े डेम का निर्माण किया था. सिंचाई परियोजना का यह ऐसा कदम था जिसकी शुरुआत साहू महाराज ने की थी. उनकी अमूल्य सेवाओं को देखते हुए कानपूर के विशाल अधिवेशन में कुर्मी समाज के लोगों ने 21 अप्रेल 1991 को उन्हें  राजश्री पदवी से सुशोभित किया था.
एक बार शिकार हेतु शाहू महाराज कटकोल गए।  वहां के स्थानीय निवासियों ने महाराज को इलाके की अपराधी जातियों (समाज से बहिष्कृत उपेक्षित घुमन्तु लोग )की शिकायत की।  महाराज ने उन सबको तत्काल पेश करने का आदेश दिया। अधिकारीयों ने सभी अपराधी  जातियों को पकड़ कर महाराज के सामने पेश किया।  महाराज के पूछने पर अपराधी जातियों के लोगों ने कहा कि काम के अभाव में वे वैसा करते हैं। महाराजा ने कहा कि लोगों को काम मिले, यह तो राज्य का धर्म है। शाहू महाराज उन सब अपराधियों को लेकर कोल्हापुर लाये और सोनतली कैंप के पास उन्हें रहने की जगह दी। शाहू महाराज ने उन्हें अलग-अलग तरह के रोजगार मुहैया कराये।
एक बार महाराजा जब कर्नाटक के दौरे पर थे, उस समय वहां के महाराजा द्वारा  इसी तरह की उपेक्षित घुमन्तु जातियों के लोगों को कोड़े मारने के लिए राज दरबार में खड़े किया गया था। शाहू महाराज ने कर्नाटक महाराजा से कह कर उन सब को अपनी रियासत कोल्हापुर लाये।  महाराजा ने उन्हें एक पहाड़ी से पत्थर निकालने में भिड़ा दिया।  तब काफी पत्थर इकट्ठे हो गए तो महाराजा ने 'राधानगरी ' नामक  एक बड़ा बांध बंधवाया।  
           राजश्री छत्रपति साहू महाराज का निधन  48 वर्ष की अल्पायु में ही 6  मई सन 1922 को  मुम्बई के पनहाला  लॉज में हो गया था. मगर, इतनी अल्पायु में ही उन्होंने सामाजिक परिवर्तन की दिशा में जो क्रन्तिकारी उपाय किये, वह इतिहास में याद रखा जायेगा.
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1.  आधार ग्रन्थ - लोकराजा  राजर्षि छत्रपति शाहू महाराज: लेखक-  डी आर  ओहोल  मूलनिवासी पब्लिकेशन ट्रष्ट,  पुणे  

ज्ञानेश्वर का पूरा नाम ज्ञानेश्वर विठ्ठलपंत कुलकर्णी था।
     

Tuesday, February 14, 2012

विठोबा मून पण्डे (Vithoba Moon Pande)

  संत विठोबा रावजी मून पंडे (1864-1924)

    विठोबा रावजी मून, रामटेक (महा.) के रहने वाले थे।   वे रामटेक में दलित जातियों के 'पंडे' थे।  उनका जन्म दलित महार समाज में हुआ था। विठोबा रावजी मून ने उन्नीसवी सदी में एक बड़े सामाजिक-आन्दोलन का नेतृत्व किया था।
     तब, दलित जातियों के अन्दर एक ऐसा वर्ग था जो हमेशा भक्ति-भाव और आध्यात्मिक चर्चाओं में रमा  रहता था। इन में जो लोग साधू हो जाया करते थे, वे देशाटन करते और भिक्षा-वृति से जीवन यापन करते थे। ये कबीर पंथी, रामानंद पंथी, शिव पंथी, महानुभाव पंथी, विट्ठल पंथी आदि सम्प्रदाय और पंथों के अनुयायी हुआ करते थे।  इन लोगों ने अपना एक अलग 'संत-समाज' बना लिया था।  उन्होंने अपने आचरण और व्यवहार के लिए नियम बना लिए थे, जिसे वे कडाई से पालन करते थे। संत अनिवार्यत: शाकाहारी हुआ करते थे।  वे मांसाहारियों के हाथ का भोजन नहीं करते थे। यहाँ तक कि विवाह आदि भी संतों के बीच ही हुआ करते थे।
        वास्तव में, देश के अन्दर सामाजिक जन-जाग्रति का पहला काम संतों ने किया था।  चूँकि संतों की खानी-बानी दुरुस्त थी, आचरण और व्यवहार में वे कड़क थे;  इसलिए सामान्य जनता में संतों की गहरी पैठ थी। लोग उनके उपदेशों को बड़े भक्ति-भाव से सुनते थे।  उन्होंने घूम-घूम कर सामाजिक गैर-बराबरी और  कुरूतियों, अंधविश्वासों पर जो चोट की थी।  उसके बगैर सामाजिक सुधार के आन्दोलनों के इतिहास को पढ़ा ही नहीं जा सकता।  विठोबा रावजी मून उसी संत-खानी की उपज थे। अब आईये, संत विठोबा रावजी मून के सामाजिक सरोकार की बारे में जानने का प्रयास करते है।
     नागपुर (महा.) के पास हिन्दुओं का एक तीर्थ-स्थल है-रामटेक।  यहाँ प्राचीन एक बहुत बड़ा तालाब है, जिसे अंबाळा तालाब  कहा जाता है।  तालाब से लगी हुई पहाड़ियां हैं, जिस पर बहुत-से मन्दिर बने हैं। यहाँ वर्ष में दो बार चैत और कार्तिक पूर्णिमा को मेला लगता है। हिन्दुओं में रामटेक का महत्व मृत्यु के बाद सम्पन्न किये जाने वाले दाह-संस्कार आदि क्रियाओं के कारण है।  दूर-दूर के लोग आकर रामटेक के इसी तालाब में अस्थि-विसर्जन, मुंडन और पिंड दान आदि करते हैं. यह सिलसिला वर्ष भर चलता हैं.
        इस तालाब में दलित समाज के लोग भी पिछले 20 -25  वर्षों से अस्थि-विसर्जन वगैरे करते आ रहे थे।  मगर, सन 1904  से हिन्दुओं के एक संगठन द्वारा दलितों को यहाँ आने से रोक दिया गया था।  हिन्दुओं का कहना था कि दलित जातियों के लोग गाय का मांस खाते हैं, इसलिए उन्हें यहाँ आने नहीं दिया जाएगा।  गाय को हिन्दू , गौ-माता कहते हैं।
    उस समय दलित जातियों में मृत-पशुओं का मांस खाया जाता था।  इसमें गाय भी थी।  दरअसल, दलित जातियों के पास आजीविका के अन्य साधन नहीं  थे। हिन्दुओं ने उनके कार्य नियत कर दिए थे।  इन कार्यों में घरों से मृत-पशुओं को उठा कर ठिकाने लगाना होता था।  जीविका के अन्य साधन न होने के कारण मृत-पशुओं का मांस खाना  दलित समाज के लोगों की मजबूरी थ। यह बात नहीं कि मृत-पशुओं का मांस, ये लोग शौक से खाते थे। क्योंकि, समय-समय पर दलित समाज में इसके विरुध्द सामाजिक-सुधार के आन्दोलन चले थे।
     अब यहाँ पर हमारे लेख में विठोबाराव जी मून का प्रवेश होता है। आइए, उनके बारे में जाने। विठोबाराव जी मून का जन्म सन 1964  में हुआ था।  सन 1892  के काल में नागपुर के इमामबाड़ा रोड पर शनिवारी मोहल्ले में उनके परिवार के साथ रहने का उल्लेख मिलता है। यहीं के मिशनरी स्कूल में विठोबाराव की प्रायमरी शिक्षा हुई थी। बड़े होने पर विठोबाराव ने कपास के छोटे-मोटे व्यापार से आजीविका की शुरुआत की थी।  वे सूती कपड़ा मिलों से रिजेक्टेड कपास सस्ते में खरीद कर और फिर उसे साफ कर मुम्बई जाकर बेच देते थे।  वे गावं-गावं घूम कर चिल्लर कपास भी खरीदते थे. गावं और शहर घूमते-घूमते विठोबाराव  की मुलाकात कई लोगों से होती थी। विठोबाराव दलित समाज के थे और तब, दलित समाज में समाज-सुधार के आन्दोलन चल रहे थे। एक बार मुम्बई  में उनकी मुलाकात शिवराम जानबाजी कामळे से हुई थी। कामले के सामाजिक सरोकार के प्रयासों से विठोबाराव मून बड़े प्रभावित हुए थे।
      विठोबा राव पढ़े-लिखे थे।  वे भाषण भी अच्छा करते थे।  व्यापार के सिलसिले में कई लोगों से मिलने के कारण उनकी अप्रोच अच्छी बन गई थी।  विठोबाराव मून ने  सामाजिक-क्षेत्र में उतरने का फैसला किया। आपने दलित जातियों द्वारा मृत-पशु का मांस खाए जाने के विरुध्द एक सशक्त आन्दोलन  चलाया जाना जरुरी समझा।  उस समय देश पर अंग्रेजी हुकूमत थी।  यद्यपि, अंग्रेजों के आने के बाद दलित जातियों की स्थिति में कुछ खास परिवर्तन नहीं हुआ था।  मगर, निश्चित रूप में हिन्दुओं के दबदबे में अंतर आया था।  ऐसे में विठोबाराव मून ने लोगों को जाग्रत करने का बीड़ा उठाया।  मृत पशु का मांस खाना गन्दा और अस्वास्थ्यकर है, इस तरह की बातें  उन्होंने लोगों के सामने पुरजोर शब्दों में रखी।
     इसके अलावा दलित जाति के लोग हिन्दुओं के घरों में मृत्यु हो या शादी; के मौकों पर बाजा बजाया करते थे। यह अलग बात है कि इन्हें हिंदुओं की ख़ुशी में शामिल होने का अधिकार नहीं था।  हिन्दू , इन जातियों को अस्पृश्य समझते थे।  इन लोगों छूने या उसकी छाया पड़ने से हिन्दुओं को 'बिताळ' लगता था जिसे वे स्नान कर शुध्द करते थे।  इसी तरह हिन्दुओं के घरों में डिलेवरी के समय दलित समाज की महिला जा कर दाई का काम करती थी।  वह हिन्दू महिलाओं की डिलेवरी करवाती थी। उस समय अस्पतालों की सुविधाए नहीं थी, जैसे  आज गावं-गावं तक हैं।  दलित महिला हिन्दू घरों में महीनों तक जच्चे-बच्चे की मालिश और सफाई करती  थी।  तो भी इस दलित स्त्री के हाथ का पानी पीना हिन्दुओं के लिए अधर्म था।
     विठोबाराव मून ने इन सब सामाजिक- विसंगतियों को दूर करने का संकल्प लिया।  उन्होंने गावं-गावं और शहर-शहर जाकर महार समाज के लोगों से फार्म भरवाया कि वे अब से मृत पशु का मांस नहीं खायेंगे। वे दाई के काम से तौबा करेंगे।  वे हिन्दुओं के घरों में बाजा बजाने नहीं जायेंगे।  जन-जाग्रति के लिये उन्होंने गावं-गावं में भजन-मन्डळी बनायी।  समाज सुधार के इस आंदोलन में उन्हे अनेक कठिनाईयों का सामना करना पड़ा।  किन्तु, यह भी सच है कि धीरे-धीरे इसका समाज पर अच्छा प्रभाव भी पड़ने लगा।
      यह बात उस समय की है, जब देश में मालगुजारी की प्रथा थी। तब , रामटेक के मालगुजार गोपाल गणेश फडनवीस हुआ करते थे, जो नागपुर के महाराजा रघुजीराव भोसले के अधीन काम देखते थे। विठोबा मून ने इन तमाम मुद्दों पर और विशेषत: अंबाळा तालाब की घटना बाबद महाराजा के पास गुहार करने की ठानी। रघुजीराव भोसले के दरबार में पेश होकर  कहा कि महाराज, दलित समाज के लोग वर्षों से रामटेक में अपने पूर्वजों की अस्थि-विसर्जन आदि कार्यों के लिए आते रहे हैं. किन्तु अभी हाल ही में हिन्दुओं ने इस पर रोक लगा दी है.महाराज की कृपा हो तो दलितों को वहां जाने की अनुमति मिले अथवा उन्हें वहां अलग घाट बनाने की परवानगी हो. विठोबाराव मून की बात का महाराजा पर अच्छा प्रभाव पड़ा. उनकी बात से सहमत होते हुए महाराज रघुजी राव भोसले ने 28 अक्टू. 1903 को आदेश जारी किया कि दलितों को रामटेक के अम्बाला तालाब पर आने और अस्थि-विसर्जन आदि कार्य करने का अधिकार किया जाता है और कि उन्हें कोई रोक-टोक न करे. एक दूसरे आदेश द्वारा महाराजा ने अम्बाला तालाब पर गायमुख की ओर दलित जातियों  को पक्का घाट बनाने की अनुमति प्रदान की.
         महाराजा रघुजी राव का आदेश प्राप्त कर विठोबा मून ने तुरंत समाज के वृहत हित को ध्यान में रखते हुए पहाड़ी से नीचे घाट से लगी जमीन 75 x 80 फुट अपने नाम खरीद ली ताकि उस पर महार समाज के लिए पक्का घाट बनाया जाये. विठोबाराव मून के इस निस्वार्थ-भाव की सेवा से दूर-दूर के गावं और शहर की दलित जातियों में जय-जयकार होने लगी.
         इस तारतम्य में दलित जातियों की एक बड़ी सभा सन 1906 को रामनवमी के दिन अम्बाला तालाब के मैदान में हुई. सभा में  तालियों की गडगडाहट के साथ विठोबाराव मून के कार्यों को सराहा गया. दलित जातियों के बीच मृत-पशु का मांस खाना बंद करवाने, महाराजा रघुजी राव भोसले से मिलकर अम्बाला तालाब के उपयोग का अधिकार प्राप्त करना,घाट बनाने के लिए खुद के पैसे से जमीन खरीदना आदि उनके सामाजिक कार्यों का अभिनन्दन किया गया. सभा ने उन्हें घाट के 'पंडे ' की पदवी से नवाजा. उन्हें यह अधिकार दिया गया कि वे दलित जाति के आने वाले लोगों से घाट के निर्माण और देख-रेख के लिए सहयोग राशि प्राप्त करे.सभा में 'अन्त्यज समाज कमेटी' का भी गठन किया किया. इस कमेटी का जनरल सेक्रेटरी संत विठोबाराव जी मून 'पण्डे' को बनाया गया था.
        दि. 18 दिस. 1912 को जैराम पैकू सेट्या के मोतीबाग स्थित बाड़े में दलित जातियों की एक बड़ी सभा हुई. इस सभा में निर्णय लिया गया कि चूँकि, ब्रिटिश हुकूमत ने ईसाई मिशनरियों के माध्यम से स्कूल खोल कर  दलितों के लिए शिक्षा के दरवाजे खोले हैं. अत: दलित समाज के सम्पन्न लोगों को इस दिशा में आगे आकर गरीब दलित बच्चों की मदद करनी चाहिए. दलित गरीब जातियों के अधिसंख्यक बच्चे शिक्षा प्राप्त कर सके इसके लिए लिए अधिक से अधिक आवासीय स्कूल खोले जाने चाहिए. दूसरे, दलित जातियों की बस्ती और मोहल्लों में पीने के पानी के लिए कुए खुदवाने चाहिए. क्योंकि, हिन्दू उन्हें अपने कुओं का पानी भरने नहीं देते. सभा में यह भी निर्णय लिया गया कि दलित जाति के गरीब लोग अनन्य कार्यों से शहरों में आते हैं. मगर, वहां उनके रुकने की कोई व्यवस्था नहीं होती. हिन्दू  उन्हें  मकान नहीं देते, वे उनसे घृणा करते हैं. अत: शहरों में उनके रुकने के लिए धर्मशालाये बनानी चाहिए.
        ब्रिटिश हुकूमत में दलित जातियों के प्रति अंग्रेजों का रवैया वैसा घृणा का नहीं था जैसे अंग्रेजी शासन के पूर्व मराठों, पेशवाओं का था. अंग्रेजों का रवैया सुधारात्मक नहीं था. तो भी ब्रिटिश हुकूमत ने दलित जातियों के लिए शिक्षा और नौकरी के दरवाजे खोले थे जो हिन्दू धर्म और संस्कृति के चलते उनके लिए सदियों से बंद थे. ईसाई मिशनरियों के माध्यम से दलित जातियों के बीच कई संस्थाए संचालित हो रही थी. इसी प्रकार के महार समाज की एक संस्था के अध्यक्ष अंग्रेज अफसर  रेव्स रेंड जी.डी.फिलिफ थे. इस अंग्रेज अफसर के अध्यक्ष पद से निवृत होने के बाद सन 1920  में उक्त संस्था के अध्यक्ष विठोबाराव जी मून संत पंडे को बनाया गया था.
        इस समय देश के सामाजिक आन्दोलन के परिदृश्य में डा. बाबा साहेब आंबेडकर उतर चुके थे. उदारवादी हिन्दू भी दलित जातियों के अधिकारों के प्रश्न पर आगे आ रहे थे. जगह-जगह महार समाज के लोग सामाजिक आंदोलनों का नेतृत्व कर रहे थे. इसी कड़ी में सन 1923  में एक बड़ी सभा नागपुर में एडव्होकेट जी.आर.प्रधान की अध्यक्षता में हुई थी. सभा में इस आशय का प्रस्ताव पारित कर कि गवर्नर की काउन्सिल में शासन की ओर से विठोबा राव जी मून को लिया जाय, मध्य प्रान्त और बरार के गवर्नर को भेजा गया था . मगर, विठोबाराव जी मून गवर्नर की काउन्सिल की शोभा न बढ़ा सके. सन 1924 में वे  हम से अलविदा हो गए.

गाँधी टोपी

        देश को स्वत्रंता देने के उद्देश्य से ब्रिटिश हुकूमत ने केंद्र में प्रतिनिधि सरकार के गठन के लिए सन 1946 में आम चुनाव की घोषणा की थी.इस चुनाव में केवल तीन राजनैतिक पार्टियाँ चुनाव लड़ रही थी.हिन्दुओं की और से कांग्रेस,मुसलमानों की और से मुस्लिम लीग,और दलित समाज की और से शेड्यूल्ड कास्ट फेडरेशन ने अपने-अपने उम्मीदवार खड़े किये थे.पूना पेक्ट के अनुसार दलित जातियों के लिए कुछ सीटें सुरक्षित थी.इस सुरक्षित सीटों पर कांग्रेस और शेड्यूल्ड कास्ट फेडरेशन के बीच ही मुकाबला था.शेड्यूल्ड कास्ट फेडरेशन के उम्मीदवारों के विरुध्द कांग्रेस ने अपने 'हरिजन उम्मीदवार' खड़े किये थे.
       आम चुनाव का महत्त्व समझाने 12 दिस. 1945 को नागपुर में अखिल भारतीय शेड्यूल्ड कास्ट फेडरेशन का अधिवेशन हुआ था. मध्य-प्रान्त और बरार की चुनाव मुहिम इस अधिवेशन से आरम्भ हुई थी. डा. बाबा साहेब आंबेडकर इस अधिवेशन के प्रमुख वक्ता थे. वे ट्रेन द्वारा नागपुर पहुंचे थे. नागपुर रेलवे स्टेशन पर समता सैनिक दल के हजारों कार्यकर्ता उनके स्वागत में मौजूद थे. स्टेशन के बाहर समता सैनिक दल ने बैंड और बिगुल बजाकर बाबा साहेब डा. आंबेडकर को सलामी दी.स्टेशन से जुलुस कस्तूरचंद पार्क पहुंचा और विशाल सभा में परिवर्तित हो गया.इस अधिवेशन में लाखों की संख्या में दलित जनता दूर-दूर से अपने नेता के दर्शन करने आई थी.दलित नेताओं में अखिल भारतीय शेड्यूल्ड कास्ट फेडरेशन के जनरल सेक्रेटरी  बापू साहब पी. एन. राजभोज , राव साहेब ठवरे, रेवाराम कवाडे, टी. एल. पाटिल आदि उपस्थित थे.
     तालियों की गडगडाहट के साथ डा. बाबा साहेब आंबेडकर का भाषण शुरू हुआ.बाबा साहेब ने अपने भाषण में कहा कि कांग्रेस, जनता को बतलाती है कि अंग्रेजों को देश के बाहर निकालना उसका ध्येय है और कि वह स्वतंत्रता के लिए लड़ रही है.कांग्रेस के लोग बतलाते हैं कि यही वह पार्टी है, जो आजादी के लिए संघर्ष कर रही है. मगर, ऐसा बतलाकर साथियों, कांग्रेस के लोग जनता में भ्रम फैला रहे हैं. वास्तव में, आजादी सबको चाहिए. देश की आजादी हमें भी चाहिए.स्वराज हमें भी चाहिए.
       स्वराज, जैसा कि नारा कांग्रेस लगाती है,यह कोई विवाद का प्रश्न नहीं है.इस देश में हिन्दू बहुसंख्यक हैं. मगर, इस देश में अल्पसंख्यक भी है.स्वराज, हिन्दू बहुसंख्यकों को तो बहुत भाता है मगर, क्या यह अल्पसंख्यकों को भी उतना ही भाता है ? इस देश का बहुसंख्यक जब स्वराज की बात करता है तो देश के अल्पसंख्यकों को भय लगता है. ऐसा क्यों है ? स्वराज की लड़ाई पिछले बीस सालों से लड़ी जा रही हैं. मगर, अल्पसंख्यकों के भय को ख़त्म करने के लिए हिन्दू कोई ध्यान नहीं दे रहे हैं. 
        साथियों, इस देश के दलित समाज को भी आजादी चाहिए. उन्हें भी स्वराज चाहिए.कांग्रेस तो आजादी के लड़ाई पिछले बीस सालों से लड़ रही है. मगर, दलित समाज तो आजादी की लड़ाई सदियों से लड़ रहा है ! क्या आज भी  हिन्दू उन्हें आजादी देने तैयार है ? जिस तरह हिन्दू  स्वतंत्रता चाहते हैं. दलित समाज भी स्वतंत्रता चाहता है.अगर हिन्दू , देश की सत्ता अपने हाथ में देखना चाहते हैं तो दलित समाज भी चाहता है कि देश की सत्ता में उसकी भागीदारी हो.गांधीजी का कहना है कि दलितों का उध्दार राजनीति से नहीं सामाजिक सुधारों से होगा. गांधीजी का कहना कितना सही है यह तो वे ही जाने. अस्पृश्यता नष्ट करने के लिए वे वर्षों से प्रयत्न कर रहे हैं, जैसे कि उनका कहना है. किन्तु अस्पृश्यता आज तक नष्ट नहीं हुई और न ही मन्दिरों के दरवाजे खुले.मैं जगन्नाथ मन्दिर गया था मगर, मुझे अन्दर नहीं जाने दिया गया. अब इस पर आप लोग ही विचार कीजिये. आप लोगों को सैकड़ों वर्षों से हिन्दुओं के द्वारा किये जा रहे अन्याय और अत्याचारों से मुक्त होना है.
      डा. आंबेडकर ने आगे कहा कि कांग्रेस को दलितों का प्रतिनिधित्व करने का कोई अधिकार नहीं है.आने वाला चुनाव बहुत महत्वपूर्ण है. इस चुनाव में शेड्यूल्ड कास्ट फेडरेशन के उम्मीदवारों को जीता कर देश की सत्ता में अपनी भागीदारी सुनिश्चित करनी है.अपने हाथों में सत्ता आये बगैर दलितों का उध्दार नहीं हो सकता.राज्य की सत्ता में भागीदारी के बिना दलितों की उन्नति संभव नहीं है.दलितों के लिए राजनीति ही एक मात्र उपाय है.गांधीजी,दलितों की समस्या को राजनीति से नहीं सामाजिक सुधार से हल करने की बात करते हैं. वे झूठ बोलते हैं. आखिर दलित, हिन्दुओं के सामाजिक सुधार पर क्यों निर्भर रहे ? हमें हिन्दुओं की दया नहीं अपने अधिकार चाहिए . हमें सत्ता में हिस्सेदारी चाहिए.राजनैतिक सत्ता की हिस्सेदारी से ही हमें अधिकार प्राप्त हो सकते हैं.
        दलित समाज के लोग अल्पसंख्यक हैं.हमारे पास कोई सत्ता नहीं है.चूँकि सत्ता नहीं है इसलिए उन्नति नहीं हो रही है.आप लोगों को राजनैतिक रूप से ताकतवर होना है.शेड्यूल्ड कास्ट फेडरेशन देश के दलित समाज की सच्ची प्रतिनिधि संस्था है. उसकी शक्ति लगातार बढ़ रही है.इसका प्रमाण यहाँ उपस्थित जन-समूह है.यदि आप लोग इसी प्रकार साथ देते रहे तो देश की राजनीति में दलितों को अपने अधिकार और हिस्सा मिलने के दिन दूर नहीं है.
          इसी तारतम्य में 14 दिस. 1945 को नागपुर में ही समता सैनिक दल का प्रांतीय सम्मेलन हुआ.इस अधिवेशन की अध्यक्षता समता सैनिक दल के राष्ट्रीय अध्यक्ष जे. सुबैया ने की थी. सुबैया ने कहा कि समता सैनिक दल का काम दलितों की सुरक्षा है. किन्तु , इस समय हमें दलित समाज को अधिकार मिले, इसके लिए सहयोग करना है.समता सैनिक दल के सैनिकों को शेड्यूल्ड कास्ट फेडरेशन के उम्मीदवारों को जिताने के लिए कार्य करना है. 
         इस अवसर पर अखिल भारतीय शेड्यूल्ड कास्ट फेडरेशन के जनरल सेक्रेटरी पी. एन. राजभोज भी उपस्थित थे. अपने भाषण में राजभोज ने कहा कि आने वाला चुनाव दलित समाज के राजनैतिक अधिकारों की लड़ाई है. केंद्र की सत्ता में हिस्सेदारी प्राप्त करना दलितों के लिए जीवन-मरण का प्रश्न है.इसलिए शेड्यूल्ड कास्ट फेडरेशन और समता सैनिक दल के कार्य-कर्ताओं को सावधान रहना चाहिए. राजभोज ने कहा कि दलित समाज ने हमें डा. बाबा साहेब आंबेडकर जैसा उच्च सामाजिक चिंतक और समर्थ नेता दिया है. हमें अपने अधिकारों की लड़ाई उन्हीं के नेतृत्व में लड़नी है. आपने डा. बाबा साहेब आंबेडकर की जय जयकार करते  हुए भरी सभा में लोगों को 'जय भीम' का जयघोष करने को कहा, जिसे उपस्थित जन-समुदाय ने बड़े उत्साह के साथ तालियों की गडगडाहट से स्वागत किया.
       बापू साहब पी. एन. राजभोज के 'जय-भीम' के नारे का ऐसा असर हुआ कि वहां पर उपस्थित लोगों में जिन-जिन ने गाँधी टोपी पहनी थी, उतार कर फेक दिया. दोस्तों, इस सम्मेलन से  'जय भीम' का अभिवादन इतना व्यापक हुआ कि लोग एक-दूसरे के मिलते समय अब  'श्री राम'  और 'जै जै राम' की जगह  'जय-भीम' का अभिवादन करने लगे.

Monday, February 13, 2012

समता सैनिक दल

समता सैनिक दल की स्थापना सन 1926 में बाबा साहेब आंबेडकर ने दलित समाज की सुरक्षा की दृष्टि से मुम्बई में की थी। 

इसका प्रथम अधिवेशन 20 जुला. सन 1942 में नागपुर के मोहन पार्क में हुआ था। सभा की अध्यक्षता पंजाब के दलित नेता सरदार गोपाल सिंग एम्.एल. ए. ने की थी।
 
समता सैनिक दल दलित समाज के प्रशिक्षित नौजवानों का संगठन था, जो दलित समाज पर होने वाले अत्याचारों से उनकी रक्षा करता था। यद्यपि दल का गठन सन 1926  में हुआ था मगर, सही रूप में इसकी सक्रियता सन  1932-33  से हुई थी।

फेडरेशन के कार्य-क्रमों में समता सैनिक दल की टुकडिया तैनात की जाती थी। सन 1933  में समता सैनिक दल के पदाधिकारी इस प्रकार थे - पं. रेवाराम कवाडे, शंकर राव मेश्राम,विट्ठल राव साल्वे,रामचंद्र दुधे-हेड केप्टन, लक्षमण गम्भीर नारायण हेड केप्टन,विनायक जगन्नाथ- हेड केप्टन.

किसन फागु बनसोड( Kisan Fagu Bansode)

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  किसन फागु बनसोडे (1879 -1946 )

  सामाजिक-आन्दोलन की जो मशाल गोपाल नाक विट्ठल नाक वलंगकर ने जलाई थी, किसन फागु बनसोडे ने उस मशाल को आगे बढाया था। किसन फागु बनसोडे ने भी चेतना साहित्य को अपने विचारों के सम्प्रेषण का माध्यम बनाया था.आपने दलित-चेतना को अपनी कविताओं में उतार कर समाज पर होने वाले उत्पीडन और अत्याचारों को लोगों के सामने बड़े प्रभावशाली ढंग से रखा. दलित समाज स्वाभिमानी है,उसके रगों के वीरता, शौर्य और जुझारूपन है, किसन फागु बनसोडे की रचनाओं में यही झलकता था.

किसन फागु बनसोडे का जन्म 18 फर 1879 को नागपुर (महाराष्ट्र) के पास मोहपा नामक गावं में हुआ था। तब नागपुर, सी.पी.(सेन्ट्रल प्रोवियेंस) एण्ड बरार की राजधानी हुआ करती थी. किसन फागु बनसोडे की पत्नी का नाम तुलसा बाई था.उस ज़माने में तुलसा बाई ने जिस तरह सामाजिक चेतना के आन्दोलन में पति की सहायक बन उनके कंधे से कन्धा मिला कर काम किया था, नि:संदेह वह स्तुतीय है
 
किसन फागु बनसोडे नागपुर शहर के पांचपावली में रहते थे.बनसोडे और पाटिल महार समाज में एक ही होते है. सामाजिक आन्दोलन की शुरुआत आपने सन 1901 में नागपुर से ही की थी.किसन फागू बनसोडे-दम्पति ने अपने जीवन का ध्येय सामाजिक-चेतना का कार्य  चुना था.अपने कार्य को अंजाम देने के लिए उन्होंने एक प्रिंटिंग प्रेस खोला था.प्रिंटिंग प्रेस का सारा काम तुलसा बाई देखती थी.यह उस समय की बात है जब दलित जातियों के उत्पीडन और अत्याचार की खबरे चारों ओर से आ रही थी. इस समय प्रिंटिंग प्रेस खोलना ओर समाचार पत्र निकालना वह भी एक दलित के द्वारा, बड़ा ही जोखिम भरा काम था.

समाज को संगठित करने के लिए 9  अक्टू. 1903  में किसन फागु बनसोडे ने  'सन्मार्ग बोधक अस्पृश्य समाज संस्था '  नाम से एक संस्था की स्थापना की थी. उन्होंने सन 1907 में 'चोखामेला' के नाम पर लड़कियों के लिए स्कूल खोला. किसान फागु बनसोडे ने सन 1910 से 1936 के दौरान 'निराश्रित हिंद नागरिक'(1910), 'विताळ  विध्वंसक'(1913), 'मजूर पत्रिका'(1918) और 'चोखामेळा (1931-36) ' ऐसी चार पत्र-पत्रिकाओं का सम्पादन किया. 'संत चोखामेळा चरित्र ' नामक ग्रन्थ,'चोखामेळा ' तथा  'सत्यशोधक जलसा' नामक दो नाटक और 'प्रदीप' नामककाव्य-संग्रह आदि की रचना की थी।

'निराश्रित हिन्द नागरिक' में सामाजिक-धार्मिक सवालों की चर्चा होती थी। 'विटाळ विध्वंशक' पत्रिका विदर्भ के  एक नेता कालीचरण नंदागवली के संयुक्त प्रयास से प्रकाशित की जा रहीं थी वही, 'मंजूर पत्रिका' मजदूरों के सवालों पर केन्द्रित होती थी(डॉ गंगाधर  पानतावणेे; महान पत्रकार डॉ अम्बेडकर).

डॉ अम्बेडकर पूर्व काल में समाचार पत्रों का प्रभावी प्रयास करने वाला किसान फागु बनसोडे के अलावा दूसरा कोई व्यक्ति नहीं है । निस्संदेह,  बनसोडे ने अपनी प्रभावी और तेज कलम के द्वारा दलित समाज में अन्याय के प्रति, न्याय के लिए तथा समता के प्राप्ति के लिए जो प्रभावी व्यापक जाग्रति पैदा की, उसका दलित वर्ग के इतिहास में कोई मुकाबला नहीं है(वही, महान पत्रकार डॉ अम्बेडकर)।

समाचार पत्र निकालने के आलावा वे अन्य स्थानों से प्रकाशित होने  वाले समाचार पत्र-पत्रिकाओं यथा सुबोध, केशरी, मुम्बई वैभव, ज्ञान प्रकाश आदि में सतत अपने लेख लिखा करते थे. अपने लेख में वे दलित समाज में व्याप्त बुराईयों, कुप्रथाओं और अंधविश्वासों पर जम कर चोट करते थे. इसके लिए वे अपने दलित समाज के लोगों को भी कड़ी फटकार लगाते थे.

उस समय, महानुभाव पंथ, खास कर दलित जातियों में व्यापक था। महार समाज के कई लोग महानुभाव पंथ की दीक्षा लेते थे और वे अपने को अन्य दलित जाति-बिरादरी से पृथक और ऊँचा समझते थे। किसन फागुजी बनसोडे ने इनकी तरीके से खबर ली थी। महानुभाव पंथी, किसन फागु बनसोडे पर अवमानना का आरोप लगाते हुए कोर्ट में भी गए थे किन्तु बनसोडे अपने समाज सुधार के कार्य से जरा भी विचलित नहीं हुए(वही, महान पत्रकार डॉ अम्बेडकर) ?)।

किसन फागु बनसोडे ने दलित उप-जातियों की भी खूब खबर लेते थे।  उन्होंने महार जाति की उप-जातियां बावने, बारके, लाडवन, सोम वंशी आदि भेदों का निषेध किया। ये उप-जातियां आपस में ही उंच-नीचता का व्यवहार करती हैं. महार जाति के कुछ लोग खुद को रामानंदी, कबीरपंथी, विट्ठल पंथी कह कर श्रेष्ठता का व्यवहार करते हैं ! वे पूछते थे कि क्या इससे उनके सामूहिक संघर्ष की शक्ति क्षीण नहीं होती ( वही, महान पत्रकार डॉ अम्बेडकर) ?

किसन फागु बनसोडे के समाज सुधार की संकल्पना आर्थिक और राजनैतिक सीमाओं  तक जाती थी।  वे इस सीमा में हिन्दू समाज की उन तमाम जातियों को लेते थे, जो शोषित और पीड़ित हैं । उनकी  यह संकल्पना अन्याय मुक्त समाज की थी।

यदि अछूत समाज को न्याय से दूर रखने का, उनके मानवी अधिकारों से दूर रखने का प्रयास होता हो तो न्याय और समता के लिए संघर्ष करना आवश्यक है, बनसोडे का मानना था. इसके लिए जो संघर्ष करना पड़ेगा, निस्संदेह वह ऊँची जातियों के खिलाफ होगा। संघर्ष के बगैर शक्ति प्राप्त नहीं हो सकती। बनसोडे का प्रयास दलित समाज की विभिन्न जातियों,  उप-जातियों में संवाद पैदा करना था ताकि एकता के धागे मजबूत हो सकें।
'स्वदेशी आन्दोलन, हो या राष्ट्रीय आन्दोलन; किसन फागु बनसोडे ने कभी विरोध नहीं किया। बस वे चाहते थे कि सामाजिक सवालों को लेकर राष्ट्रीय आन्दोलन आगे बढ़े। धर्म परिवर्तन के मुद्दे पर उनकी सोच थी कि दलित समाज को हिन्दू धर्म में ही रहते हुए अपने सामाजिक सुधार के आन्दोलन चलाने चाहिए। तत सम्बन्ध में 'देश सेवक' में प्रकाशित उनका लेख पढ़ कर हिन्दू महासभा के नेता डॉ मुंजे ने उत्साहित होकर उनसे मिलने की इच्छा जताई थी( वही, महान पत्रकार डॉ अम्बेडकर)।

 सन 1920 के दरम्यान नागपुर में 'बहिष्कृत हितकारिणी परिषद्' की विशाल सभा हुई थी। सभा की अध्यक्षता छत्रपति साहूजी महाराज ने की थी। बाबासाहेब आंबेडकर स्वयं सभा में उपस्थित थे। इस सभा में किसन फागू बनसोडे ने बड़ा ही प्रभावशाली और जोशीला भाषण दिया था। 
मगर, किसन-तुलसा बनसोडे दम्पति के सामाजिक सुधार का कार्य सनातनी हिन्दुओं को भला कब रास आने वाला था ? कट्टर हिन्दुओं ने उनका प्रेस जला दिया था. मगर, इससे किसन फागु बनसोडे कतई विचलित नहीं हुए. वे अपने सामाजिक-चेतना के कार्य में और दुगने गति से लग गए थे.

दलित समाज के इस महापुरुष का देहांत 10 अक्टू  1946 को नागपुर में हुआ था।


शिवराम जानबा काम्बले (Shivram J. Kamble )

  शिवराम जानबा काम्बले (1875-1940)

    शिवराम जानबा काम्बले, दलित समाज में पैदा होने वाले एक ऐसे चिन्तक, समाज सुधारक,लेखक और  सम्पादक हुए हैं जिन्हें दलित समाज कभी भूल नहीं पायेगा. आज अगर दलित समाज में सामाजिक चेतना है, तो उसका श्रेय निश्चित रूप से दलित समाज में पैदा हुए शिवराम जानबा काम्बले जैसे समाज सुधारक हैं.
  
शिवराम जानबाजी काम्बले का जन्म सन 1875  में हुआ था. वे महार दलित कौम में पैदा हुए थे. उनके पिताजी का नाम जानबाजी काम्बले था। जानबा काम्बले मूल रूप से भांबुरडे नामक गाँव के वतनदार(हकदार) थे(डॉ गंगाधर पानतावणेे; महान पत्रकार डॉ अम्बेडकर ) किन्तु गावं को (अछूतपन के काम) छोड़ कर  पूना में अंग्रेजों के यहाँ बटलर का काम करते थे. पिताजी के अंग्रेजों के यहाँ काम करने से शिवराम भी अंग्रेजों की तहजीब और सभ्यता के सम्पर्क में आये.

अंग्रेजों के रहन-सहन का प्रभाव बालक शिवराम पर पडा. यह अंग्रेजी तहजीब का ही प्रभाव था कि जिस दलित समाज में शिवराम  पैदा हुए थे, उस समाज में व्याप्त अंध-विश्वास, कुरुतियों और अनेक कुप्रथाओं को ख़त्म करने का बीड़ा शिवराम जानबाजी काम्बले ने उठाया.

    सामाजिक सुधार के कार्यों को करने के लिए लोगों को अपने विश्वास में लेना होता है.शिवराम जानबाजी काम्बले ने इसके लिए समाज को संगठित करने का पहला कार्य किया. उन्होंने सन 1903 में ससाबड़े नामक स्थान पर दलित समाज के लोगों की एक बड़ी सभा का आयोजन किया.

सन 1904  में उन्होंने 'सोमवंशीय हित-चिन्तक मित्र समाज' नामक एक संस्था की स्थापना की. वे एक ओर जहाँ दलित समाज को  संगठित कर रहे थे, समाज में व्याप्त बुराईयों के बारे में लोगों को जगा रहे थे वहीँ, दूसरी ओर वे इस बात की बराबर कोशिश करते रहते थे कि हिन्दू अपना दृष्टिकोण बदले और दलितों की हुई अधोगति में उनकी अपनी जिम्मेदारी के बारे में सोचे, उनको आगे बढ़ने में मदद करे.

     वे दलित समाज के व्याप्त बुराईयों जैसे पशुओं की बलि देना, मृत पशु के मांस का सेवन करना, मन्दिरों में लड़कियों को देवदासी बनाना इत्यादि के विरुध्द सतत प्रचार कर  रहे थे. अपने उद्देश्य के लिए शिवराम काम्बले ने सन 1908 से 1910  तक  'सोमवंशीय मित्र' नामक मासिक पत्रिका का प्रकाशन किया था. इस पत्रिका में वे तत-सम्बन्ध में सतत लेख  लिखा करते थे.

    देवदासी प्रथा के विरुध्द शिवरामजी काम्बले ने उल्लेखनीय कार्य किया. ध्यान रहे अधिकांश देवदासियां दलित समाज की होती है. गरीबी के कारण दलित समाज के लोग ब्राह्मण पंडों के झांसे में जल्दी आ जाते हैं. ब्राह्मण पण्डे-पुजारी भगवान् के नाम पर दलित लडकियों का शोषण  करते हैं. शिवराम काम्बले ने इस कुप्रथा के विरुध्द जम कर काम किया. उन्होंने दलित जातियों में देवदासी बनने की प्रथा के विरुध्द एक बड़ा अभियान चलाया.उनके द्वारा प्रकाशित  'सोमवंशीय मित्र' के एक अंक में शिबूबाई लक्ष्मण जाधव का पत्र छपा था. शिबूबाई देवदासी थी. पत्र में शिबूबाई  ने देवदासी बनने के लिए अपने माँ-बाप को दोषी बताया था. शिबू बाई ने लिखा था की हिन्दू पंडों के झांसे में आकर गरीब दलित समाज के लोग भगवान् के नाम पर अपनी लडकियों को मन्दिर में दान दे देते हैं. बाद में यही लडकियाँ पण्डे और धन्ना सेठों की हवस की  शिकार हो जाती है.वे उन्हें गलत रास्ते पर चलने के लिए बाध्य कर  देते हैं.शिबू बाई जाधव का पत्र पढ़ कर गनपत राव हनमंत गायकवाड नामक दलित युवक ने शिबूबाई से विवाह कर लिया था.इस तरह के देवदासियों के विवाह शिवराम जी कामले ने अनेक दलित युवकों से कराये

     दलितों की माली हालत सुधारने दलितों को पुलिस और सेना में भर्ती किया जाना चाहिए,ऐसी शिवराम जानबाजी काम्बले की सोच थी. सन 1896 से ब्रिटिश आर्मी में महारों की भर्ती बंद थी। इस संबंध में सन 1904 में शिवराम काम्बले ने पूणे के पास सासवड नामक स्थान में एक बड़ी मीटिंग बुलायी। इसमें 51 गावों के दलित समाज के लोग जमा हुए थे। मीटिंग में एक प्रस्ताव पारित कर गवर्नर बाम्बे को सौपा गया। यही मांग-पत्र सन 1905  में भारत सरकार और 10  दिस.  सन 1910 को भारत के सेक्रेटरी ऑफ़ स्टेट को सौपा गया।

शिवराम जानबा जी काम्बले की मेहनत अंतत: रंग लाई।  6 फरवरी 1917 को जब प्रथम विश्व युद्ध अपने चरम पर था , ब्रिटिश आर्मी में महारों की भर्ती खुली। दलितों में ज्ञान होना चाहिए, इस दिशा में शिवराम जानबाजी काम्बले ने दलित बस्तियों में कई वाचनालयों की स्थापना की.

शिवराम काम्बले के सामाजिक कार्यों से बड़ोदा के महाराजा सयाजीराव गायकवाड़ बेहद प्रभावित हुए थे ।  उन्होंने शिवराम जानबाजी काम्बले को बड़ौदा बुलाकर 11 सित 1908 को उनका अपने राज्य की ओर से सम्मान किया था ।
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Sunday, February 12, 2012

गोपाल बाबा वलंगकर(Gopal Bua Valangkar: - 1940)

सूबेदार गोपाल बाबा वलंगकर (  --  - 1940 )
सूबेदार गोपाल बाबा वलंगकर के सामाजिक सुधार की दिशा में किये गए प्रयासों को डा. बाबा साहेब आंबेडकर ने सराहा था.
गोपाल बाबा वलंकर भारत के इतिहास में पहले दलित पत्रकार थे जिन्होंने  छुआ-छूत और असमानता और दलितों के स्वाभिमान की बात पुरजोर तरीके से उठाई थी. यद्यपि पिछड़ी जातियों के हक़-हकूकों की आवाज उठानी शुरू हो गई थी, किन्तु अछूतों के मुक्ति-युद्ध को प्रमुखता और प्रधानता देने की तैयारी उनकी नहीं थी(डॉ गंगाधर पान्तावणेे; महान पत्रकार डॉ अम्बेडकर). गोपाल बाबा वलंकर ने इस दिशा में उल्लेखनीय कार्य  किया था. 
     सूबेदार गोपाल बाबा का पूरा नाम गोपाल नाक वलंगकर था. आपके पिता का नाम विठ्ठल नाक वलंगकर था. आप दलित महार समाज में पैदा हुये थे. सूबेदार गोपाल बाबा का जन्म महाराष्ट्र में महाड़ जिले के रावढळ नामक गावं में हुआ था. यह वही महाड है जहां,आगे चलकर बाबा साहेब डा.आंबेडकर ( 1892 -1956 ) के नेतृत्व में सार्वजनिक तालाब का पानी के लिये  लम्बा संघर्ष किया गया था.
      सूबेदार गोपाल बाबा वलंगकर मराठा आर्मी में थे. सन 1886 में आर्मी से रिटायर होने के बाद आपने सामाजिक-सुधार के कार्य को हाथ में लिया था. सूबेदार गोपाल बुआ वलंगकर पर महात्मा ज्योतिबा फुले ( 1827-90 ) का जबरदस्त प्रभाव था.
      सूबेदार गोपाल बाबा वलंगकर सामाजिक-उत्थान से जुडी पत्र-पत्रिकाओं में लेख लिखा करते थे. उनके लेख दलितों की दयनीय स्थिति और उन पर होने वाले अत्याचारों पर हुआ करते थे. वे अपने विचार तथ्यों के साथ बड़ी संयत भाषा में रखते थे.उन्होंने मराठी भाषा में एक साप्ताहिक समाचार-पत्र  का प्रकाशन भी किया था. उन्होंने 'अनार्य दोष परिहार' नामक संस्था बनायीं थी.
       सन 1888 में सूबेदार गोपाल बाबा  वलंगकर ने 'विटाळ विध्वन्षक' नामक पुस्तक लिखी थी. सामाजिक आन्दोलन के क्षेत्र में यह एक क्रन्तिकारी पुस्तक थी. इस पुस्तक में सूबेदार गोपाल बाबा वलंगकर ने  हिन्दुओं से 26 प्रश्न पूछे थे. ये प्रश्न उनके धर्म-ग्रंथों के आधार पर थे. इन प्रश्नों के द्वारा सूबेदार गोपाल  बाबा वलंगकर ने इस बात से पर्दा उठाया था कि सनातनी हिन्दू कितने स्वार्थी और मतलबी हैं. उन्होने बतलाया था कि अछूतों की दयनीय दशा के लिए हिन्दू और उनके धर्म-ग्रन्थ जिम्मेदार है.

अछूतों का सुधार हो, इस उद्देश्य से सन 18 90 में गोपाल बाबा वलंकर ने 'अनार्य दोष परिहारक मंडल' की स्थापना की थी. 
      तब, सनातनी हिन्दुओं के बहकावे में आकर अंग्रेजों ने भारतीय ब्रिटीश सेना में महारों की भर्ती बंद कर दी थी. सूबेदार गोपाल बाबा वलंगकर ने सन  जुला. 1894  में इस सम्बन्ध में अंग्रेज सरकार को कड़ा पत्र लिखा था. आपने लिखा था कि पूर्व में महार समाज के लोगों ने ब्रिटिश सेना में रहते हुए अंग्रेजों की कितनी सहायता की है . मगर, अंग्रेजों में उनकी सेवाओं को नजरअंदाज कर उलटे उन्हें सेना से निकाल दिया है, जो अनुचित है. उन्होंने लिखा था कि महार समाज की वीरता और उल्लेखनीय सेवा को ध्यान में रखते हुए अंग्रेज सरकार को अपने आदेश पर पुन: विचार करना चाहिए.
     सन 1885  में सूबेदार गोपाल बाबा वलंगकर के सामाजिक-उत्थान के कार्यों को देखते हुए अंग्रेज सरकार ने उन्हें महाड़ जिला  लोकल बोर्ड का सदस्य नियुक्त किया था. लोकल बोर्ड के सदस्य के बतौर सूबेदार गोपाल बाबा वलंगकर ने दलित जातियों के लिए कई कल्याण-कारी योजनायें मंजूर करवाने में अहम भूमिका निभाई थी. दलित समाज के इस  महान नायक का सन 1940  में निधन हो गया. सूबेदार गोपाल बाबा वलंगकर ने सामाजिक जाग्रति और दलित- साहित्य चेतना की जो मशाल जलाई, दलित समाज उसे कभी बुझने नहीं देगा.

Saturday, February 11, 2012

झीनी-झीनी बिनी चदरिया

        सोचता हूँ, कुछ अपने बारे में लिखूं .लिखना मेरा शौक है. क्यों है, मैं नहीं जानता.मगर, लिखने का शौक मुझे बचपन से है.लिखना मुझे अच्छा लगता है. लगता है, लिखते रहूँ...लिखते रहूँ.मैंने पढ़ा है की जिस शख्स में जो कला होती है, प्रकृति वह उससे जल्दी ही छिनती है.सोचता हूँ, वह दिन आने के पहले मैं काफी कुछ लिख लूँ .अपने बारे में,जो कुछ देखता हूँ, उसके बारे में.पहले मैं डायरियों में लिखता था.बाद में रजिस्टर खुले. और अब लेपटॉप मेरे हाथ में है.बच्चें सब कम्पूटर वाले हैं,यह तो होना ही था.बच्चों को मैंने खासा पढ़ा-लिखा दिया है. वे अपने-अपने ज्वाब में लगे हैं.रिटायरमेंट के बाद मैं हूँ और मेरा लेपटॉप है.
      मेरे पिताजी का नाम मंदरु है.उनका जन्म सन 1918 में हुआ था. उनकी तीन बहने थी.मेरे पिताजी के पिताजी का नाम हाड़ू था.मेरे दादाजी के पास पर्याप्त खेती-बाड़ी थी.पिताजी 4 थी पास थे.मुझे लगता है,उस समय की 4 थी कक्षा आज के प्रायमरी के 5 वीं के बराबर हुआ करती थी. क्योंकि, जहाँ तक मैं जानता हूँ,उस ज़माने के लोग अधिकांशत: 4 थी तक ही पढ़े-लिखे थे.दूसरा कारण ये भी हो सकता है कि तब, गावं में 4 थी तक ही स्कूल हो.आजकल जैसे गावं-गावं में स्कूल है, वैसे तब कहाँ हुआ करते थे. 10-15 की. मी. के क्षेत्र में एकाध स्कूल होता था.अकेला पुत्र होने के कारण पिताजी काफी लाड-प्यार से पले थे.
    पिताजी बीडी के ठेकेदार थे.उन्होंने बीडी का कारखाना करीब 30-35 वर्ष चलाया.हमारे घर में यद्यपि खेती-बाड़ी काफी थी, मगर पिताजी,खेती के काम में शायद ही रहते थे.खेती-बाड़ी के कार्य के लिए मेरे फूफा आ जाया करते थे. कभी कलगावं(कटंगी)  वाले फूफा आते थे तो कभी सुकडी(मिरगपुर) वाले.हम दोनों भाई और माँ उनके साथ खेती-बाड़ी के कार्य में हाथ बटाते थे.पिताजी को बीडी-ठेकेदारी के काम से ही फुर्सत नहीं होती थी.वास्तव में, हमारे यहाँ जो बीडी-कारखाना था, उस में आस-पास के 4-5 गावं के बीडी कारीगर बीडी बनाते थे.अर्थात काफी बड़ा कारखाना था.
      मेरे रूटीन कार्य 'डिफाइन' थे.सबेरे उठकर गाय-बैल को जानवरों के कोठे से निकालकर बाहर आँगन में बांधना. कोठे और आँगन से लेकर घर के आस-पास की सफाई करना.यह मेरा रूटीन कार्य था.मुझे याद है,जाड़े के दिनों में, जब सिर पर गोबर और गाय-बैल के मूत्र से सना कचरा (जानवरों की जूठन) लेकर मैं लम्बी बाड़ी की बाऊंड्री में खुदे कुढ़े तक जाता था तब,सिर पर रखे डल्ले (टोकने) से झरता गोबर और मूत्र मेरे चेहरे और तन को भिगो जाता था. मैं अपनी बनियाइन को गोबर-मूत्र के दाग से बचाने के लिए, उसे पहले ही बदन से निकाल कर  रख देता था.पहले, इतने कपड़े मिलते जो कहाँ थे ?
    इस कार्य से फारिग होने के बाद खेत में जाना होता था. वहां सीजन के अनुसार अलग-अलग काम हुआ करते थे. धान-कटाई के समय,धान काटना,रोपा लगाने के समय, रोपा लगाना पड़ता था.और आफ सीजन में बैलों को गावं के तालाब/बोड़ी या नाले धो कर साफ-सफाई करना, जानवरों का पेट भरते तक चरा कर लाना आदि काम करने पड़ते थे. इसके बाद, घर आकर स्नान करते हुए तैयार होकर गावं या दूसरे गावं के स्कूल में जाना पड़ता था.प्रायमरी तक तो हमारे गावं में ही स्कूल था. मिडिल स्कूल मैंने अपने गावं से 4 की. मी. दूरी पर स्थित स्कूल चिखला-बांध से पास किया.इस सम्बन्ध में मुझे एक घटना याद आती है.
         यह मेरे ख्याल से 1964-65 में पड़ा अकाल का समय रहा होगा.हम दोनों भाई  हमारे गावं से 4-5 कि.मी. कि दूरी पर स्थित चिखला-बाँध के मिडिल स्कूल में पड़ते थे.मैं 7 वीं और बड़े भाई 8 वीं में पढ़ रहे थे.उस समय लगातार 2-3 साल तक अकाल पड़ा था.पिताजी ने हम दोनों भाइयों को स्कूल से बंद करा दिया था. शायद, वे सोचते थे की खेती-बाड़ी कर अच्छी फसल पैदा ही जाय और आफ सीजन में बीडी बना कर रोज-मर्रा का खर्च चलाया जाय.पिताजी के इस सोच के पीछे हमारे नजदीक  की रिश्तेदारी का एक परिवार था.
     हमारे गावं के पास की बस्ती दुधारा में मेरे मामा (फूफा) रहते थे.उनका नाम ऊंदरू था.उनके 6 बच्चें थे. पांच भाई और एक बहन.वे बहुत ही गरीब थे. हमारे यहाँ जब बीडी का कारखाना चलता था तब,मामा सपरिवार हमारे घर में ही एक खोली(कमरे) में रहते थे.उनके बच्चें स्कूल न जाकर घर में ही सब बीडी बनाते थे. सभी लोगों के बीडी बनाने से बीडी काफी मात्र में बन जाती थी और इससे उनका बढ़िया गुजर-बसर होता था. बीडी बनाने से उनके पास इतना पैसा आता था की वे उस में से काफी कुछ बचा भी लेते थे.बाद में उन लोगों ने अपने गावं दुधारा जा कर खेती-बाड़ी का काम फिर से शुरू कर दिया था.पांच भाइयों का सम ऐसा था की उनके पास रूपया आते गया.आने वाला समय उनके अनुकूल बनते गया.धीरे-धीरे वे दुधारा के एक जमे हुए समृध्द परिवार के रूप में गिने जाने लगे.मुझे याद है, जब मेरे फूफा भाई हमारे घर आते थे तब,माँ और पिताजी उनका खास मेहमानवाजी करते थे. वे सभी भाई और मेरे मामा (फूफा) भी मेरे पिताजी को विशेष मानते थे.
      ऊंदरू मामा का परिवार पिताजी के आँखों के सामने उदाहरण था.शिक्षा की महत्ता पिताजी को ज्ञात नहीं थी, ऐसा नहीं है.क्योंकि, मेरी बड़ी बहन का विवाह जिससे हुआ था, वे गवर्मेंट ज्वाब में थे.जीजाजी खाद्य विभाग में सहायक खाद्य निरीक्षक थे.और गवर्मेंट ज्वाब क्या होती है, हम जानते थे.मगर, मुझे लगता है की लगातार ३ साल तक पड़े अकाल ने उन्हें मजबूर कर दिया था की जो कुछ घर में खेती से अनाज आता है, उसे बचाए रखा जाय.क्योंकि, अगले साल भी अच्छी वर्षा हो ही, यह कोई निश्चित नहीं था.
        खैर,हम दोनों भाई स्कूल से बंद हो गए थे.स्कूल न जाना हम दोनों भाइयों के लिए बेहद तकलीफदेह था. मगर हम कर भी क्या सकते थे ? हुआ ये की इसी बीच मेरी बूढी दादी(पिताजी की माँ) का देहांत हो गया.दादी के अन्तिम संस्कार में सब रिश्तेदार जमा हुए. जब अधिकांश रिश्तेदार चले गए तब,शेष बचे रिश्तेदारों के बीच घरेलु चर्चा में हम दोनों भाइयों ने अपना रोना रोया की हमारा स्कूल छुट गया है. ऊंदरू मामा ने इस बात का नोटिश लिया. मामा ने पिताजी को समझाया की ठेकेदार, (पिताजी को लम्बे समय तक बीडी-ठेकेदारी करने से लोग इसी नाम से पुकारते थे) आपको इन्हें स्कूल भेजना चाहिए.पिताजी, ऊंदरू मामा की बात को काऊंटर नहीं कर सके.उन्हें हामी भरनी पड़ी. मगर उन्होंने एक शर्त रखी. उन्होंने कहा की अभी वार्षिक परीक्षा को तीन महीने हैं.दोनों भाई कल से स्कूल जाय और पढ़ाई करे.वार्षिक परीक्षा में जो पास हो जाय, वह आगे अपनी पढ़ाई जारी  रखे और जो पास न हो वह घर में रहे.आखिर,घर में भी तो काम करने वाला कोई हो ? पिताजी की बात सुन कर सब चुप हो गए.
        अगले दिन से हम दोनों भाई स्कूल जाने लगे.निश्चित रूप से बड़े भाई पढने में मुझ से तेज थे. क्योंकि, मुझे याद है,घर में मैं उनकी कापियां देख कर कक्षा में न समझ में आने वाले प्रश्न हल करता था. हम दोनों एक क्लास आगे-पीछे थे.मगर, वार्षिक परीक्षा में मैं पास हो गया और बड़े भाई पास न हो सके. मुझे यह रहस्य आज तक समझ नहीं आया.
       बात बीडी के कारखाने की चल रही थी. करीब 8-9 बजे मुझे घर-घर जाकर  बीडी-कारीगरों को बताना पड़ता था की वे तैयार बीडी कारखाने में पहुंचाए.फिर,यह बताने जाना पड़ता था की बीडी के पत्ते लेने वे कारखाना आये.इसके बाद तम्बाखू  लेने आये.यह काम का मेरा अनवरत सिलसिला था. कई बार मुझे पिताजी से पिटाई भी पड़ी थी. कारीगर अक्सर तैयार बीडी पहुँचाने में या तम्बाखू लेने के लिए आने में देरी करते थे. पिताजी के पूछने पर वे कह देते थे की कोई बताने ही नहीं आया.पिताजी बड़े सख्त स्वभाव के थे.कारीगर उनके गुस्से से कांपते थे.वे बीडी चैक करने के दौरान बीडी के कट्टों से भरी टोकरी सम्बंधित कारीगर के मुंह पर फैंक देते थे.तब, कच्ची बीडी को पकाने (पक्की बीडी बनाने) का स्टॉक नाका डोंगरी हुआ करता था.बीडी ठेकेदार कारीगरों से बीडी लेकर हारे (बड़ा-सा टोकरा) में उस स्टॉक में पहुंचाते थे.बताते हैं की बीडी स्टॉक में बीडी गिनने वाला मुंशी, बीडी-ठेकेदारों की आई हुई बीडी चैक करने के दौरान हारे-के हारे फैक देते थे.इसलिए बीडी-ठेकेदार,कारीगरों से सख्ती बरतते थे.
      उस क्षेत्र में मेरे पिताजी और 15-20 की.मी.के दूरी पर स्थित मानेगावं(कटंगी) के लक्षमण ठेकेदार माने हुए ठेकेदार जाने जाते थे.बाद में फिर कुछ और बीडी-ठेकेदार अपने काम से जाना जाने लगे. इन में किन्हीं(भोरगढ़) के गिरधारी बोरकर खास थे. वे मेरे मामा(फूफा) थे. मेरी एक बुआ उन्हें ब्याही गई थी. काफी वर्ष बीडी-कारखाना चलाने के बाद फिर पिताजी ने इस धंधे को तिलांजलि दे दी.वे लम्बे समय से यह धंधा करने से उकता गए थे.
          गिरधारी मामा हम भाई-बहनों को बहुत चाहते थे. उनकी कोई संतान नहीं थी.मेरी फुआ का नाम शांति था.उसे बाद में दमा कि बीमारी हो गई थी.हम अक्सर उनके यहाँ (किन्ही)जाते थे.वे वैद्य भी थे.सामाजिक क्षेत्र में उनका बड़ा योगदान था.दूर-दूर के लोग उनको जानते थे.उनके एक भतीजे थे. भतीजे का नाम लालदास बोरकर था. लालदास भी बीडी के ठेकेदार थे. सामाजिक क्षेत्र के कोई भी कार्य वे मिल-जुल कर करते थे.
            बीडी-कारीगरों से सम्बंधित एक दिलचस्प बात माँ ने मुझे बताया था. हमारे समाज में बच्चों के नाम कुछ इस तरह से रखे जाते थे-राम्या,सोम्या, हाड्या, कड्या,चमरया,जुगारया,धवन्या,होकट्या,जन्या,हगरया आदि.इस तरह के नाम रखने के पीछे लाजिक ये था की सवर्ण हिन्दू , हमारे लोगों को इस तरह उतार कर पुकारा करते थे.अगर किसी का नाम सुधड़ होता तब, हमारे लोगों को पीता जाता था. यहाँ तक की हत्या कर दी जाती थी. यह सदियों से चला आ रहा था.लिहाजा, हमारे समाज के लोगों ने बाद में उसी तरह नाम रखना शुरू कर दिया था.
          बीडी-कारखाने में पिताजी को सब कारीगरों के नाम लिखना पड़ता था.ये नाम बीडी कम्पनी के रिकार्ड में भी दर्ज होते थे. पिताजी को ये नाम अच्छे नहीं लगते थे.तब, पिताजी ने कारीगरों से पूछा की अगर उनके नाम वे सुधारकर लिखे या पुराने नामों से मिलते-जुलते अच्छे नाम लिखे तो उनको आपत्ति तो नहीं होगी ? कारीगर जो कुछ होशियार थे, उनको ठेकेदार का यह प्रयास अच्छा लगा. किसी ने कोई आपत्ति दर्ज नहीं की. हाँ, ये जरुर कहा की ठेकेदार, अगर हिन्दू आपत्ति करे तो ? इस पर पिताजी ने कहा की वह उनको समझाने की कोशिश करेंगे.बहरहाल, पिताजी ने सम्बन्धित कारीगर से पूछ कर उनके सुधड़ नाम रजिस्टर में दर्ज किये.माँ की बात सुन कर मुझे बीरसिंहपुर पाली में 'परिवर्तन मिशन स्कूल' चलाने  के दौरान वहां के मजदूरों के बच्चों को लेकर कुछ इसी तरह किया गया काम याद आया.अनजाने में ही कितना सामजस्य था, पिताजी और मेरे द्वारा किये गए कार्य में.
         मुझे ध्यान है,हमारे घर में एक लोटा हुआ करता था जिस पर ' मन्दरया' लिखा था. यद्यपि मांज-मांज कर लोटा और नाम काफी घिस गया था परन्तु, फिर भी नाम पढ़ा जा सकता था. हम भाई-बहन अक्सर उस लोटे को और उस पर खुदे हुए नाम को पढ़ हंसी-मजाक करते थे.फिर भी, यदा-कदा गावं के किसी ऊंची जाति के बुढऊं से पिताजी को इसी नाम से बुलाते सूना जा सकता था.यद्यपि, अधिकांश लोग पिताजी को 'ठेकेदार' के नाम से ही पुकारते थे.
        बीडी-ठेकेदारी के साथ पिताजी समाज के लिए भी उतने ही सजग और सतर्क थे.बीडी-ठेकेदार होने के कारण गावं का पटेल, समाज से सम्बन्धित किसी मुद्दे पर पिताजी को खास तरजीह देता था.हमारे समाज के आदमी से सम्बन्धित किसी विवाद पर वह  हवालदार से पिताजी को अपने बाड़े में बुलाता था.
         तब, गावं में तीन-चार लोग ऐसे थे जिनका बड़ा दबदबा और सम्मान था.एक तो मेरे पिताजी थे.पिताजी को लोग  'ठेकेदार' के नाम से ही पुकारते थे.दूसरे थे-नत्थूलाल चौधरी. आप वैद्य थे.हम इन्हें 'डाक्टर काकाजी' कह कर पुकारते थे.आप जाति के पंवार थे.आप 4-5 भाई थे. डाक्टर काकाजी के पिताजी भी वैद्य थे. वे घर से सम्पन थे. एक तीसरे 'टेलर काकाजी' थे. आप भी जाति के पंवार हैं. हमारे गावं में पंवार जाति के लोग काफी है. वे सभी खेती-बाड़ी से मजबूत हैं.टेलर काकाजी ने लम्बे समय तक कपड़े सिलने का काम किया है.टेलर काकाजी कीर्तन करते थे.वे रामानंदी पंथ के थे. उनके गुरु का नाम तुलसीनाथ महाराज था.टेलर काकाजी काफी ऊंचा सुनते थे.एक और 'सरपंच काकाजी' हैं. आपका नाम रूपचंद परते हैं. आप गोंड जाति के हैं.आप लम्बे अरसे तक गावं के सरपंच रहे हैं शायद, इसीलिए सरपंच काकाजी नाम जुबान के बस गया. हमारे गावं में गोंड जाति के लोग भी काफी हैं. मगर,सरपंच काकाजी को छोड़ कर बाकी सब दो जून की रोटी वाले है.गावं में पंवार जाति के लोग खेती-बाड़ी का काम करते हैं जबकि,गोंड जाति के अधिकांश लोग मजदूरी पर निर्भर रहते हैं.
       डाक्टर काकाजी, टेलर काकाजी और पिताजी स्कूल के सहपाठी हैं.इनकी दोस्ती घनी थी. गावं या पर-गावं के किसी मसले पर ये तिकड़ी की सोच मायने रखती थी.हमारे घर में अक्सर इनकी बैठके होती थी. माँ को कभी-कभी रात-रात भर इनके लिए चाय बनानी पड़ती थी.
        माँ बिलकुल पढ़ी-लिखी नहीं थी.मगर बीडी-ठेकेदारी का वह सारा हिसाब रखती थी.मजदूरों का सारा पैसा माँ के संदूक में होता था.वह नोटों को गिन-गिन कर रखती थी और मांगने पर पिताजी को उतनी रकम देती थी.बीडी-कारखाना और कपडे की दूकान के अलावा पिताजी कोई काम नहीं करते थे या यों कहे, उन्हें फुरसत नहीं होती थी.खेती-बाड़ी का सारा काम माँ मजदूरों के हाथ से कराती थी.
           पिताजी को मैंने काफी सख्त देखा था.वह तेज मिजाज के थे.पिताजी जब बीडी-कारखाने से उठते थे तब कुए के पास स्नान के लिए गुन-गुना गरम पानी होना आवश्यक था. स्नान के पत्थर के पास खूंटी में धोती माँ पहले ही ले जाकर रख देती थी.खाना खाने के लिए बैठने का आड्नी-पाटा ( भोजन की थाली रखने के लिए लोहे के तीन पैर का छोटा-सा स्टूल और लकड़ी का पाटा) तैयार होना आवश्यक था. भोजन की थाली में जरा भी कुछ कम हुआ की पिताजी पूरी थाली फैंक देते थे.
         बरसात में माँ को दूध पिलाने के लिए दिन में दो बार-तीन बार घर आना पड़ता था.पहले से खेत में गए घर के सदस्यों और मजदूरों के लिए माँ सिदोरी (खाना) बना कर लाती थी. सिदोरी लाने में जरा भी देरी हुई की पिताजी तुतारी (बैलों को हांकने/मारने के लिए लम्बी छड़ी)लेकर धुरे (मेंढ़) पर खड़े हो जाते थे.
      हम बच्चों के प्रति भी पिताजी काफी सख्त थे.किसी बात पर गुस्सा होकर हम लोगों को पिटाई पड़ती तब माँ या दादी-माँ बीच में आ जाती थी.जब कभी हम को पिताजी मारते या डाँटते तब घर में सन्नाटा छ जाता था.मुझे याद है, बचपन में मुझे संदूक के अन्दर रखे थे.मैं भी अन्य भाई-बहनों से जरा ज्यादा ही उपद्रवी था.कुछ बातें मेरे अन्दर अलग से ही थी.पिताजी मुझे 'बह्या' (झक्की ) कह कर पुकारते थे.निश्चित रूप में मुझ में इस तरह के गुण थे.माँ बतलाती थी की मेरे गर्भस्थ होने के पहले उसने कुल-देवता से आशीर्वाद माँगा था.क्योंकि, मेरे बड़े भाई, जो तीन बहनों के बाद हुए थे, काफी बीमार रहते थे.
             हमारे यहाँ कपडे का बड़ा दूकान होता था. पिताजी कपड़ों की बड़ी-बड़ी गांठे बालाघाट के किसी मारवाड़ी के दूकान से लाते थे.फिर उन्हें दूकान में रखा जाता था.पिताजी तब दूकान में बैठ कर गज से नाप-नाप कर कपड़ा ग्राहकों को देते थे.बड़े साहब (मारवती उके) के साथ बाद में पिताजी ने किराने का काफी बड़ा दूकान लगाया था. यह दूकान बड़े साहब के घर में चलता था.शायद, हमारे घर में जगह की कमी थी. क्योंकि, बीडी के कारखाने के लिए ही काफी जगह एंगेज होती थी.कपडे का दूकान तो हमारे घर काफी साल रहा मगर मुझे लगता है, किराने का दुकान 3-4 साल से ज्यादा नहीं चल पाया.
      जैसे की मैं बतला रहा था, मेरे जीजाजी एक अच्छी सरकारी नौकरी में थे. सहायक खाद्य-निरीक्षक को पेमेंट के अलावा खासी इनकम होती है.खाद्य-दुकाने और धान पिसने की मिलें चैक करना उनके अधिकार क्षेत्र में होता है.खाद्य-दुकानों में और राईस मीलों में कई तरह के रिकार्ड रखने पड़ते हैं. सरकारी नियम-कायदें इस तरह होते हैं की कोई चाहने पर भी हिसाब-किताब ठीक-ठाक नहीं रख सकता.जाहिर है,इन राईस मिल मालिकों और दुकानदारों को चेकिंग में आये सरकारी अफसरों को मेनेज करना होता है.
        मिडिल स्कूल पास करने के बाद मेरी बड़ी बहन ने मुझे अपने पास बुला लिया. तब, जीजाजी बालाघाट में पदस्थ थे. मैंने बालाघाट के गवर्नमेंट मल्टी-परपज हायर सेकेंडरी स्कूल में एडमिशन ले लिया. 9th और 10th मैंने यहीं से पास किया. पढ़ाई में मैं ठीक था. 6th क्लास से ही मेरी पोसिशन कक्षा में 1st या 2nd होती थी.मगर,गावं से बालाघाट जैसे जिला हेड-क्वार्टर में स्थित स्कूल में मुझे मेरी स्थिति कुछ ठीक नहीं लगी. तो भी क्लास में अंगुली पर गिने जाने वाले लडकों में मेरी पोजीशन रहती थी.एक जानकी नाम का लड़का था.उससे मेरा तगड़ा कम्पीटीशन था.
       इसी बीच, बालाघाट पालेटेक्निक से एक लेक्चरार ने हमारे स्कूल में आकर टेक्नीकल इंजीनियरिंग की आने वाले दिनों में महत्ता पर लेक्चर दिया. स्कूल के हमारे लेक्चरार और प्रिंसिपल साहब बड़े प्रभावित हुए.उन्होंने भी इसी शहर में स्थित पालेटेक्निक में एडमिशन लेने के लिए हम लोगों को उत्साहित किया.उन्होंने बतलाया की अगर कोई 10th के बाद ही एडमिशन लेना चाहता है तो उन्हें एडमिशन मिल जाएगा.मुझे भी कई साथियों ने पाले टेक्निक ज्वाइन करने की सलाह दी. मुझे बड़ा विचित्र लगता था जब मैं देखता था की पालेटेक्निक जाने वाले,लकड़ी का एक बड़ा-सा बोर्ड हाथ में टाँगे कालेज जाया करते थे.
        खैर, मैंने 10th के बाद पालेटेक्निक ज्वाइन कर लिया.पिताजी को पालेटेक्निक का आइडिया नहीं था.तब, पढने वाले अधिकांश बच्चें बी.ए./एम्.ए. करते थे.पिताजी पटवारी, मास्टर, ग्राम-सेवक जानते थे.पालेटेक्निक  कर मैं क्या बनूंगा, उन्हें इसका अंदाजा नहीं था.
       पालेटेक्निक में इंग्लिश मीडियम में पढ़ाई होती है. गावं के माहौल में प्रायमरी और मिडिल तक पढ़ाई करने तथा 10th पास होने के कारण इंग्लिश मेरी कमजोर थी.पालेटेक्निक के लेक्चरार भी इस बात को जानते थे.लिहाजा,दिक्कत जो होना था, हुई. मगर, किसी तरह का ऋणात्मक प्रभाव इसका मेरे ऊपर नहीं हुआ.एक-दो लेक्चरार, इंग्लिश में लेक्चर देते थे मगर, बाकि, हिंदी का भी उपयोग करते थे.एक सब्जेक्ट 'वर्कशॉप  टेक्नोलोजी' मुझे पल्ले ही नहीं पड़ा.वह थ्योरीटिकल सब्जेक्ट था और तिस पर मेकेनिकल.मेरा सब्जेक्ट 'इलेक्ट्रिकल' था.शुरू में मैंने 'मेकेनिकल' ही लिया था.  प्रथम-वर्ष में 'मेकेनिकल' वालों के 'वर्कशॉप' का ज्वाब कुछ अजीब होता है.एक लोहे के टुकडे को 'वाइस' में फंसा कर उसकी चारों सर्फेस मिलाना होता है.घंटों और दिनों के इस बोरियत भरे ज्वाब ने 'मेकेनिकल' सब्जेक्ट के प्रति मेरे इंटरेस्ट को हिला कर रख दिया.मैंने तुरंत दरख्वास्त की और अपना सब्जेक्ट बदल लिया.शुरू में ऐसा आप कर सकते हैं मगर, बाद में नहीं.
       पालेटेक्निक में मैं 'एवरेज' रहा.वास्तव में,'इंग्लिश मीडियम' मेरी परफार्मेंस को बरकरार रखने में काफी बाधक साबित हुआ.बेहतर है, बच्चों को शुरू से ही 'इंग्लिश मीडियम' में ही पढाया जाये.
      पालेटेक्निक में मैं जिस कमरे में रह कर पढ़ाई करता था, उसके ऊपर के कमरे में मकान मालिक की लड़की के साथ अन्य दो लड़कियाँ रहती थी.मकान मालिक की लड़की बेहद खुबसूरत थी. वह गावं के पटेल/साहूकार की एकमात्र संतान थी.वह काफी सुख-सुविधा में पली-बढ़ी थी.जैसे की इस उम्र में होता है, मैं उसकी तरफ आकर्षित हुआ था.मगर, वह मेरी और आकर्षित हुई हो, ऐसा नहीं लगा.इसी बीच, बाकि दो लड़कियों में से एक ने मेरा ध्यान खिंचा. वह सांवली मगर, सामान्य थी.वह प्राय: गम-सुम रहा करती थी.वह किसी बात पर रोती तो उसके आँखों से खून बहने लगता था.मुझे उसका गम-सुम रहना, उसकी आँखों से खून निकलना अजीब-सी कसमसाहट पैदा करता था.
      पालेटेक्निक के अन्तिम वर्ष की परीक्षा देने के बाद मैं अपने गावं आ गया.मेरे दो सब्जेक्ट रुके थे. एक था 'इलेक्ट्रिकल ड्राइंग' और दूसरा सब्जेक्ट वही, वर्कशॉप टेकनोलोजी'.यह सन 1974-75 का दौर था.सन 1974-75
में भी भारी अकाल पड़ा था.मैं परीक्षा की फ़ीस जमा नहीं कर पा रहा था.काफी दिन घर में ही रहा मगर, मेरा मन नहीं लग रहा था.इसी बीच गोंदिया से 'टेलीफोन आपरेटर' की मैंने एक साल की ट्रेनिंग ली थी.अंतत: 1976-77 में फ़ीस जमा कर परीक्षा दिया और पास हो गया. उस समय पालेटेक्निक से ही 'म.प्र. इलेक्ट्रीसिटी बोर्ड' ने उन  विद्यार्थियों के नाम मंगाए थे जो अन्तिम वर्ष की परीक्षा में सम्मिलित हुए थे.मंडल को विद्युत् पैदा करने के लिए पावर-हाऊस में तकनिकी ज्ञान रखने वाले डिग्री या डिप्लोमाधारी लड़कों की जरुरत थी.उस समय, डिग्री/डिप्लोमाधारी बच्चें मिलते कहाँ थे ? गावं-देहात के लोगों को उसका शऊर ही नहीं था.
           जन. 1977 में मुझे 'म.प्र.इलेक्ट्रीसिटी बोर्ड' से इंटरव्यू का  काल-लेटर मिला.पालेटेक्निक में नागवंशी सर हुआ करते थे. वे मुझे बहुत चाहते थे, यद्यपि,वे सिविल ट्रेड के लेक्चरार थे.मुझे लगता है, पालेटेक्निक में  करेसपंड़ेंश(पत्र-व्यवहार) का कार्य उनके पास होगा. नागवंशी सर ने मुझे घर पर बुलाया.नास्ता कराने के बाद उन्होंने विस्तार से बतलाया कि जबलपुर जाने के लिए ब्राड-गेज ट्रेन में बैठना होगा. ब्राड-गेज ट्रेन काफी स्पीड में चलती है. यह कि मुझे दरवाजे के पास नहीं बैठना है.मिसेज नागवंशी ने भी मुझे बड़ी बहन की तरह काफी हिदायतें दी.आज भी मुझे उनका चेहरा और प्यार याद आता है.
         फर. 77 में मुझे बालको (भारत अल्मुनियम कंपनी) से भी काल-लेटर मिला.मार्च 77 के अन्तिम सप्ताह में मुझे दोनों जगह से डयूटी ज्वाइन करने का निमंत्रण मिला.मुझे समझ नहीं आ रहा था कि किसे छोडू और किसे पकडूँ.मैंने पिताजी से राय ली.पिताजी ने पूछा- पहले कौन-सा लेटर मिला? उनका कहना था कि जहाँ से पहले बुलावा आया है वहां जाना ठीक होगा. पिताजी कि बात मानते हुए मैंने 7 अप्रेल 1977 को म.प्र.विद्युत् मंडल की नौकरी ज्वाइन की.